रविवार, 8 मार्च 2015

रानी केकती की कहानी

सैयद इंशा अल्ला खां

यह वह कहानी है कि जिसमें हिंदी छुट।
और न किसी बोली का मेल है न पुट।
सिर झुकाकर नाक रगडता हूं उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। आतियां जातियां जो साँसें हैं, उसके बिन ध्यान यह सब फाँसे हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस खिलाडी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पडे और कडवा कसैला क्यों हो। उस फल की मिठाई चक्खे जो बडे से बडे अगलों ने चक्खी है।
देखने को दो आँखें दीं ओर सुनने को दो कान।
नाक भी सब में ऊँची कर दी मरतों को जी दान।।
मिट्टी के बसान को इतनी सकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड सके। सच हे, जो बनाया हुआ हो, सो अपने बनाने वाले को क्या सराहे और क्या कहें। यों जिसका जी चाहे, पडा बके। सिर से लगा पांव तक जितने रोंगटे हैं, जो सबके सब बोल उठें और सराहा करें और उतने बरसों उसी ध्यान में रहें जितनी सारी नदियों में रेत और फूल फलियां खेत में हैं, तो भी कुछ न हो सके, कराहा करें। इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूं उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिए यों कहा है- जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाताय और उसका चचेरा भाई जिसका ब्याह उसके घर हुआ, उसकी सुरत मुझे लगी रहती है। मैं फूला अपने आप में नहीं समाता, और जितने उनके लडके वाले हैं, उन्हीं को मेरे जी में चाह है। और कोई कुछ हो, मुझे नहीं भाता। मुझको उम्र घराने छूट किसी चोर ठग से क्या पडी! जीते और मरते आसरा उन्हीं सभों का और उनके घराने का रखता हूं तीसों घडी। डौल डाल एक अनोखी बात का एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदणी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो। अपने मिलने वालों में से एक कोई पढे-लिखे, पुराने-धुराने, डाँग, बूढे धाग यह खटराग लाए। सिर हिलाकर, मुंह थुथाकर, नाक भी चढाकर आंखें फिराकर लगे कहने - यह बात होते दिखाई नहीं देती। हिंदणीपन भी निकले और भाखापन भी न हो। बस जैसे भले लोग अच्छे आपस में बोलते चालते हैं, ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँह किसी की न हो, यह नहीं होने का। मैंने उनकी ठंडी साँस का टहोका खाकर झुंझलाकर कहा - मैं कुछ ऐसा बढ-बोला नहीं जो राई को परबत कर दिखाऊं, जो मुझ से न हो सकता तो यह बात मुँह से क्यों निकलता? जिस ढब से होता, इस बखेडे को टालता। इस कहानी का कहने वाला यहाँ आपको जताता है और जैसा कुछ उसे लोग पुकारते हैं, कह सुनाता है। दहना हाथ मुँह फेरकर आपको जताता हूँ, जो मेरे दाता ने चाहा तो यह ताव-भाव, राव-चाव और कूंद-फाँद, लपट झपट दिखाऊँ जो देखते ही आपके ध्यान का घोडा, जो बिजली से भी बहुत चंचल अल्हडपन में है, हिरन के रूप में अपनी चैकडी भूल जाए। टुक घोडे पर चढ के अपने आता हूं मैं। करतब जो कुछ है, कर दिखाता हूं मैंघ् उस चाहने वाले ने जो चाहा तो अभी। कहता जो कुछ हूं। कर दिखाता हूं मैंघ् अब आप कान रख के, आँखें मिला के, सन्मुख होके टुक इधर देखिए, किस ढंग से बढ चलता हूं और अपने फूल के पंखडी जैसे होंठों से किस-किस रूप के फूल उगलता हूँ।
कहानी के जीवन का उभार और बोलचाल की दुलहिन का सिंगार किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था। उसे उसके माँ-बाप और सब घर के लोग कुंवर उदैभान करके पुकारते थे। सचमुच उसके जीवन की जोत में सूरज की एक स्त्रोत आ मिली थी। उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो किसी के लिखने और कहने में आ सके। पंद्रह बरस भरके उसने सोलहवें में पाँव रक्खा था। कुछ यों ही सीमसें भीनती चली थीं। पर किसी बात के सोच का घर-घाट न पाया था और चाह की नदी का पाट उसने देखा न था। एक दिन हरियाली देखने को अपने घोडे पर चढ के अठखेल और अल्हड पन के साथ देखता भालता चला जाता था। इतने में जो एक हिरनी उसके सामने आई, तो उसका जी लोट पोट हुआ। उस हिरनी के पीछे सब छोड छाडकर घोडा फेंका। कोई घोडा उसको पा सकता था? जब सूरज छिप गया और हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो कुंवर उदैभान भूखा, प्यासा, उनींदा, जै भाइयाँ, अँगडाइयाँ लेता, हक्का बक्का होके लगा आसरा ढूंढने। इतने में कुछ एक अमराइयां देख पडी, तो उधर चल निकलाय तो देखता है वो चालीस-पचास रंडियां एक से एकजोबन में अगली झूला डाले पडी झूल रही हैं और सावन गातियां हैं। ज्यों ही उन्होंने उसको देखा - तू कौन? तू कौन? की चिंघाड सी पड गई। उन सभी में एक के साथ उसकी आँख लग गई।
कोई कहती थी यह उचक्का है। कोई कहती थी एक पक्का है। वही झूले वाली लाल जोडा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहते थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया। पर कहने-सुनने की बहुत सी नांह-नूह की और कहा - इस लग चलने को भला क्या कहते हैं! हक न धक, जो तुम झट से टहक पडे। यह न जाना, यह रंडियां अपने झूल रही हैं। अजी तुम तो इस रूप के साथ इस रव बेधडक चले आए हो, ठंडे ठंडे चले जाओ। तब कुंवर ने मसोस के मलीला खाके कहा - इतनी रुखाइयां न कीजिए। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड की छांह में ओसका बचाव करके पडा रहूंगा। बडे तडके धुंधलके में उठकर जिधर को मुंह पडेगा चला जाऊंगा। कुछ किसी का लेता देता नहीं। एक हिरनी के पीछे सब लोगों को छोड छाड कर घोडा फेंका था। कोई घोडा उसको पा सकता था? जब तलक उजाला रहा उसके ध्यान में था। जब अंधेरा छा गया और जी बहुत घबरा गया, इन अमराइयों का आसरा ढूंढ कर यहां चला आया हूं। कुछ रोकटोक तो इतनी न थी जो माथा ठनक जाता और रुका रहता। सिर उठाए हां पता चला आया। क्या जानता था - वहां पदिमिनियां पडी झूलती पेंगे चढा रही हैं। पर यों बढी थी, बरसों मैं भी झूल करूंगा। यह बात सुनकर वह जो लाल जोडे वाली सबकी सिरधरी थी, उसने कहा - हाँ जी, बोलियां ठोलियां न मारो और इनको कह दो जहां जी चाहे, अपने पडे रहें, ओर जो कुछ खानेको मांगें, इन्हें पहुंचा दो। घर आए को आज तक किसी ने मार नहीं डाला। इनके मुंह का डौल, गाल तमतमाए और होंठ पपडाए, और घोडे का हांफना, ओर जी का कांपना और ठंडी सांसें भरना, और निढाल हो गिरे पडना इनको सच्चा करता है। बात बनाई हुई और सचैटी की कोई छिपती नहीं। पर हमारे इनके बीच कुछ ओट कपडे लत्ते की कर दो। इतना आसरा पाके सबसे परे जो कोने में पांच सात पौदे थे, उनकी छांव में कुंवर उदैभान ने अपना बिछौना किया और कुछ सिरहाने धरकर चाहता था कि सो रहें, पर नींद कोई चाहत की लगावट में आती थी? पडा पडा अपने जी से बातें कर रहा था। जब रात सांय-सांय बोलने लगी और साथ वालियां सब सो रहीं, रानी केतकी ने अपनी सहेली मदनबान को जगाकर यों कहा - अरी ओ! तूने कुछ सुना है? मेरा जी उस पर आ गया हैय और किसी डौल से थम नहीं सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है। अब होनी जो हो सो होय सिर रहता रहे, जाता जाय। मैं उसके पास जाती हूं। तू मेरे साथ चल। पर तेरे पांवों पडती हूं कोई सुनने न पाए। अरी यह मेरा जोडा मेरे और उसके बनाने वाले ने मिला दिया। मैं इसी जी में इस अमराइयों में आई थी। रानी केतकी मदनबान का हाथ पकडे हुए वहां आन पहुंची, जहां कुंवर उदैभान लेटे हुए कुछ-कुछ सोच में बड-बडा रहे थे। मदनबान आगे बढके कहने लगी - तुम्हें अकेला जानकर रानी जी आप आई हैं। कुंवर उदैभान यह सुनकर उठ बैठे और यह कहा - क्यों न हो, जी को जी से मिलाप है? कुंवर और रानी दोनों चुपचाप बैठेय पर मदनबान दोनों को गुदगुदा रही थी। होते होते रानी का वह पता खुला कि राजा जगतपरकास की बेटी है और उनकी मां रानी कामलता कहलाती है। उनको उनके मां बाप ने कह दिया है - एक महीने अमराइयों में जाकर झूल आया करो। आज वहीं दिन थाय सो तुमसे मुठभेड हो गई। बहुत महाराजों के कुंवरों से बातें आई, पर किसी पर इनका ध्यान न चढा। तुम्हारे धन भाग जो तुम्हारे पास सबसे छुपके, मैं जो उनके लडकपन की गोइयां हूं। मुझे अपने साथ लेके आई है। अब तुम अपनी बीती कहानी कहो - तुम किस देस के कौन हो। उन्होंने कहा - मेरा बाप राजा सूरजभान और मां रानी लक्ष्मीबास हैं। आपस में जो गठजोड हो जाय तो कुछ अनोखी, अचरज और अचंभे की बात नहीं। यों ही आगे से होता चला आया है। जैसा मुँह वैसा थप्पड। जोड तोड टटोल लेते हैं। दोनों महाराजों को यह चितचाही बात अच्छी लगेगी, पर हम तुम दोनों के जी का गठजोड चाहिए। इसी में मदनबान बोल उठी - सो तो हुआ। अपनी अपनी अंगूठियां हेरफेर कर लो और आपस में लिखौती लिख दो। फिर कुछ हिचर-मिचर न रहे। कुंवर उदैभान ने अपनी अंगूठी रानी केतकी को पहना दी और रानी ने भी अपनी अंगूठी कुंवर की उंगली में डाल दी और एक धीमी सी चुटकी भी ले ली। इसमें मदनबाल बोली जो सच पूछा तो इतनी भी बहुत हुई। मेरे सिर चोट है। इतना बढ चलना अच्छा नहीं। अब उठ चलो और इनको सोने दोय और रोएं तो पडे रोने दो। बातचीत तो ठीक हो चुकी। पिछले पहर से रानी तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आई थी, उधर को चली गई और कुंवर उदैभान अपने घोडे की पीठ लगाकर अपने लोगों से मिलके अपने घर पहुँचे।
कुंवर ने चुपके से यह कहला भेजा - अब मेरा कलेजा टुकडे-टुकडे हुए जाता है। दोनों महाराजाओं को आपस में लडने दो। किसी डौल से जो हो सके, तो मुझे अपने पास बुला लो। हम तुम मिलके किसी और देस निकल चलेंय होनी हो सो हो, सिर रहता रहे, जाता जाय। एक मालिन, जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे, उसने उस कुंवर की चिट्ठी किसी फूल की पंखडी में लपेट लपेट कर रानी केतकी तक पहुंचा दी। रानी ने उस चिट्ठी को अपनी आंखों से लगाया और मालिन को एक थाल भरके मोती दिएय और उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुंह की पीक से यह लिखा -ऐ मेरे जी के ग्राहक, जो तू मुझे बोटी बोटी कर चील-कौवों को दे डाले, तो भी मेरी आंखों चैन और कलेजे सुख हो। पर यह बात भाग चलने की अच्छी नहीं।
इसमें एक बाप-दादे के चिट लग जाती है, अब जब तक मां बाप जैसा कुछ होता चला आता है उसी डोल से बेटे-बेटी को किसी पर पटक न मारें और सिर से किसी के चेपक न दें, तब तक यह एक जो तो क्या, जो करोड जी जाते रहें तो कोई बात हैं रुचती नहीं। यह चिट्ठी जो बिस भरी कुंवर तक जा पहुंची, उस पर कई एक थाल सोने के हीरे, मोती, पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है। और जितनी उसे बेचैनी थी, उससे चैगुनी पचगुनी हो जाती है और उस चिट्ठी को अपने उस गोरे डंड पर बांध लेता है। आना जोगी महेंदर गिर का कैलास पहाड पर से और कुंवर उदैभान और उसके मां-बाप को हिरनी हिरन कर डालना जगतपरकास अपने गुरू को जो कैलाश पहाड पर रहता था, लिख भेजता है- कुछ हमारी सहाय कीजिए। महाकठिन बिपताभार हम पर आ पडी है। राजा सूरजभान को अब यहां तक वाव बॅ हक ने लिया है, जो उन्होंने हम से महाराजों से डौल किया है। सराहना जोगी जी के स्थान का कैलास पहाड जो एक डौल चाँदी का है, उस पर राजा जगतपरकास का गुरू, जिसको महेंदर गिर सब इंदरलोक के लाग कहते थे, ध्यान ज्ञान में कोई 90 लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात लगा रहता था। सोना, रूपा, तां बे, रॉगे का बनाना तो क्या और गुटका मुंह में लेकर उड ना परे रहे, उसको और बातें इस इस ढब की ध्यान में थीं जो कहने सुनने से बाहर हैं। मेंह सोने रूपे का बरसा देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके आगे खेल था। गाने बजाने में महादेव जी छूट सब उसके आगे कान पकडते थे। सरस्वती जिसकी सब लोग कहते थे, उनने भी कुछ कुछ गुनगुनाना उसी से सीखा था। उसके सामने छरू राग छत्तीस रागिनियां आठ पहर रूप बंदियों का सा धरे हुए उसकी सेवा में सदा हाथ जोडे खडी रहती थीं। और वहां अतीतों को गिर कहकर पुकारते थे-भैरोगिर, विभासगिर, हिंडोलगिर, मेघनाथ, केदारनाथ, दीपकसेन, जोतिसरूप सारंगरूप। और अतीतिनें उस ढब से कहलाती थीं-गुजरी, टोडी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली। जब चाहता, अधर में सिधासन पर बैठकर उडाए फिरता था और नब्बे लाख अतीत गुटके अपने मुंह में लिए, गेरूए वस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके साथ होते थे। जिस घडी रानी केतकी के बाप की चिट्ठी एक बगला उसके घर पहुंचा देता है, गुरु महेंदर गिर एक चिग्घाड मारकर दल बादलों को ढलका देता है। बघंबर पर बैठे भभूत अपने मुंह से मल कुछ कुछ पढंत करता हुआ बाण घोडे भी पीठ लगा और सब अतीत मृगछालों पर बैठे हुए गुटके मुंह में लिए हुए बोल उठे - गोरख जागा और मुंछदर जागा और मुंछदर भागा। एक आंख की झपक में वहां आ पहुंचता है जहां दोनों महाराजों में लडाई हो रही थी। पहले तो एक काली आंधी आईय फिर ओले बरसेय फिर टिड्डी आई। किसी को अपनी सुध न रही। राजा सूरजभान के जितने हाथी घोडे और जितने लोग और भीडभाड थी, कुछ न समझा कि क्या किधर गई और उन्हें कौन उठा ले गया। राजा जगत परकास के लोगों पर और रानी केतकी के लोगों पर क्योडे की बूंदों की नन्हीं-नन्हीं फुहार सी पडने लगी। जब यह सब कुछ हो चुका, तो गुरुजी ने अतीतियों से कहा - उदैभान, सूरजभान, लछमीबास इन तीनों को हिरनी हिरन बना के किसी बन में छोड दोय और जो उनके साथी हों, उन सभों को तोड फोड दो। जैसा गुरुजी ने कहा, झटपट वही किया। विपत का मारा कुंवर उदैभान और उसका बाप वह राजा सूरजभान और उनकी मां लछमीबास हिरन हिरनी बन गए। हरी घास कई बरस तक चरते रहे और उस भीड भाड का तो कुछ थल बेडा न मिला, किधर गए और कहां थे बस यहां की यहीं रहने दो। फिर सुनो। अब रानी केतकी के बाप महाराजा जगतपरकास की सुनिए। उनके घर का घर गुरु जी के पांव पर गिरा और सबने सिर झुकाकर कहा - महाराज, यह आपने बडा काम किया। हम सबको रख लिया। जो आप न पहुंचते तो क्या रहा था। सबने मर मिटने की ठान ली थी।
महाराज ने कहा - भभूत तो क्या, मुझे अपना जी भी उससे प्यारा नहीं। मुझे उसके एक पहर के बहल जाने पर एक जी तो क्या जो करोर जी हों तो दे डालें। रानी केतकी को डिबिया में से थोडा सा भभूत दिया। कई दिन तलक भी आंख मिचैवल अपने माँ-बाप के सामने सहेलियों के साथ खेलती सबको हँसाती रही, जो सौ सौ थाल मोतियों के निछावर हुआ किए, क्या कहूँ, एक चुहल थी जो कहिए तो करोडों पोथियों में ज्यों की त्यों न आ सके। रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदनबान का साथ देने से नहीं करना। एक रात रानी केतकी उसी ध्यान में मदनबान से यों बोल उठी-अब मैं निगोडी लाज से कुट करती हूँ, तू मेरा साथ दे। मदनबान ने कहा-क्यों कर? रानी केतकी ने वह भभूत का लेना उसे बताया और यह सुनाया यह सब आँख-मिचैवल के झाई झप्पे मैंने इसी दिन के लिये कर रखे थे। मदनबान बोली-मेरा कलेजा थरथराने लगा। अरी यह माना जो तुम अपनी आँखों में उस भभूत का अंजन कर लोगी और मेरे भी लगा दोगी तो हमें तुम्हें कोई न देखेगा। और हम तुम सबको देखेंगी। पर ऐसी हम कहाँ जी चली हैं। जो बिन साथ, जोबन लिए, बन-बन में पडी भटका करें और हिरनों की सींगों पर दोनों हाथ डालकर लटका करें, और जिसके लिए यह सब कुछ है, सो वह कहाँ? और होय तो क्या जाने जो यह रानी केतकी है और यह मदनबान निगोडी नोची खसोटी उजडी उनकी सहेली है। चूल्हे और भाड में जाय यह चाहत जिसके लिए आपकी माँ-बाप को राज-पाट सुख नींद लाज छोड कर नदियों के कछारों में फिरना पडे, सो भी बेडौल। जो वह अपने रूप में होते तो भला थोडा बहुत आसरा था। ना जी यह तो हमसे न हो सकेगा। जो महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता का हम जान-बूझकर घर उजाडें और इनकी जो इकलौती लाडली बेटी है, उसको भगा ले जायें और जहाँ तहाँ उसे भटकावें और बनासपत्ति खिलावें और अपने घोडें को हिलावें। जब तुम्हारे और उसके माँ बाप में लडाई हो रही थी और उनने उस मालिन के हाथ तुम्हें लिख भेजा था जो मुझे अपने पास बुला लो, महाराजों को आपस में लडने दो, जो होनी हो सो होय हम तुम मिलके किसी देश को निकल चलेंय उस दिन समझीं। तब तो वह ताव भाव दिखाया। अब जो वह कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप तीनों जी हिरनी हिरन बन गए। क्या जाने किधर होंगे। उनके ध्यान पर इतनी कर बैठिए जो किसी ने तुम्हारे घराने में न की, अच्छी नहीं। इस बात पर पानी डाल दोय नहीं तो बहुत पछताओगी और अपना किया पाओगी। मुझसे कुछ न हो सकेगा। तुम्हारी जो कुछ अच्छी बात होती, तो मेरे मुँह से जीते जी न निकलता। पर यह बात मेरे पेट में नहीं पच सकती। तुम अभी अल्हड हो। तुमने अभी कुछ देखा नहीं। जो ऐसी बात पर सचमुच ढलाव देखूँगी तो तुम्हारे बाप से कहकर यह भभूत जो बह गया निगोडा भूत मुछंदर का पूत अवधूत दे गया है, हाथ मुरकवाकर छिनवा लूँगी। रानी केतकी ने यह रूखाइयाँ मदनबान की सुन हँ सकर टाल दिया और कहा-जिसका जी हाथ में न हो, उसे ऐसी लाखों सूझती हैय पर कहने और करने में बहुत सा फेर है। भला यह कोई अँधेर है जो माँ बाप, रावपाट, लाज छोड कर हिरन के पीछे दौडती करछालें मारती फिरूँ। पर अरी ते तो बडी बावली चिडिया है जो यह बात सच जानी और मुझसे लडने लगी। रानी केतकी का भभूत लगाकर बाहर निकल जाना और सब छोटे बडों का तिलमिलाना दस पन्द्रह दिन पीछे एक दिन रानी केतकी बिन कहे मदनबान के वह भभूत आँखों में लगा के घर से बाहर निकल गई। कुछ कहने में आता नहीं, जो मां-बाप पर हुई। सबने यह बात ठहराई, गुरूजी ने कुछ समझकर रानी केतकी को अपने पास बुला लिया होगा। महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता राजपाट उस वियोग में छोड छाड के पहाड की चोटी पर जा बैठे और किसी को अपने आँखों में से राज थामने को छोड गए। बहुत दिनों पीछे एक दिन महारानी ने महाराज जगतपरकास से कहा-रानी केतकी का कुछ भेद जानती होगी तो मदनबान जानती होगी। उसे बुलाकर तो पूँछो। महाराज ने उसे बुलाकर पूछा तो मदनबान ने सब बातें खोलियाँ। रानी केतकी के माँ बाप ने कहा-अरी मदनबान, जो तू भी उसके साथ होती तो हमारा जी भरता। अब तो वह तुझे ले जाये तो कुछ हचर पचर न कीजियो, उसको साथ ही लीजियो। जितना भभूत है, तू अपने पास रख। हम कहाँ इस राख को चूल्हें में डालेंगे। गुरूजी ने तो दोनों राज का खोज खोया-कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप दोनों अलग हो रहे। जगतपरकास और कामलता को यों तलपट किया। भभूत न होत तो ये बातें काहे को सामने आती। मदनबान भी उनके ढूँढने को निकली। अंजन लगाए हुए रानी केतकी रानी केतकी कहती हुई पडी फिरती थी।
फुनगे से लगा जड तलक जितने झाड झंखाडों में पत्ते और पत्ती बँधी थीं, उनपर रूपहरी सुनहरी डाँक गोंद लगाकर चिपका दिया और सबों को कह दिया जो सही पगडी और बागे बिन कोई किसी डौल किसी रूप से फिर चले नहीं। और जितने गवैये, बजवैए, भांड-भगतिए रहस धारी और संगीत पर नाचने वाले थे, सबको कह दिया जिस जिस गाँव में जहाँ हों अपनी अपनी ठिकानों से निकलकर अच्छे-अच्छे बिछौने बिछाकर गाते-नाचते घूम मचाते कूदते रहा करें। ढूँढना गोसाई महेंदर गिर का कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप को, न पाना और बहुत तलमलाना यहाँ की बात और चुहलें जो कुछ है, सो यहीं रहने दो। अब आगे यह सुनो। जोगी महेंदर और उसके 90 लाख जतियों ने सारे बन के बन छान मारे, पर कहीं कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप का ठिकाना न लगा। तब उन्होंने राजा इंदर को चिट्ठी लिख भेजी। उस चिट्ठी में यह लिखा हुआ था-इन तीनों जनों को हिरनी हिरन कर डाला था। अब उनको ढूँढता फिरता हूँ। कहीं नहीं मिलते और मेरी जितनी सकत थी, अपनी सी बहुत कर चुका हूं। अब मेरे मुंह से निकला कुँवर उदैभान मेरा बेटा मैं उसका बाप और ससुराल में सब ब्याह का ठाट हो रहा है। अब मुझपर विपत्ति गाढी पडी जो तुमसे हो सके, करो। राजा इंदर चिट्ठी का देखते ही गुरू महेंदर को देखने को सब इंद्रासन समेट कर आ पहुँचे और कहा-जैसा आपका बेटा वैसा मेरा बेटा। आपके साथ मैं सारे इंद्रलोक को समेटकर कुँवर उदैभान को ब्याहने चढूँगा। गोसाई महेंदर गिर ने राजा इंद से कहा-हमारी आपकी एक ही बात है, पर कुछ ऐसा सुझाइए जिससे कुँवर उदैभान हाथ आ जावे।
राजा इंदर ने कहा-जितने गवैए और गायनें हैं, उन सबको साथ लेकर हम और आप सारे बनों में फिरा करें। कहीं न कहीं ठिकाना लग जाएगा। गुरू ने कहा-अच्छा। हिरन हिरनी का खेल बिगडना और कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप का नए सिरे से रूप पकड ना एक रात राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर निखरी हुई चाँदनी में बैठे राग सुन रहे थे, करोडों हिरन राग के ध्यान में चैकडी भूल आस पास सर झुकाए खडे थे। इसी में राजा इंदर ने कहा-इन सब हिरनों पर पढ के मेरी सकत गुरू की भगत फूरे मंत्र ईश्वरोवाच पढ के एक छींटा पानी का दो। क्या जाने वह पानी कैसा था। छीटों के साथ ही कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप तीनों जनें हिरनों का रूप छोड कर जैसे थे वैसे हो गए। गोसाई महेंदर गिर और राजा इंदर ने उन तीनों को गले लगाया और बडी आवभगत से अपने पास बैठाया और वही पानी घडा अपने लोगों को देकर वहाँ भेजवाया जहाँ सिर मुंडवाते ही ओले पडे थे। राजा इंदर के लोगों ने जो पानी की छीटें वही ईश्वरोवाच पढ के दिए तो जो मरे थे सब उठ खडे हुएय और जो अधमुए भाग बचे थो, सब सिमट आए। राजा इंदर और महेंदर गिर कुँवर उदैभान और राजा सूरजभान और रानी लक्ष्मीबास को लेकर एक उड न-खटोलो पर बैठकर बडी धूमधाम से उनको उनके राज पर बिठाकर ब्याह का ठाट करने लगे। पसेरियन हीरे-मोती उन सब पर से निछावर हुए। राजा सूरजभान और कुँवर उदैभान और रानी लछमीबास चितचाही असीस पाकर फूली न समाई और अपने सो राज को कह दिया-जेवर भोरे के मुंह खोल दो। जिस जिस को जो जा उकत सूझे, बोल दो। आज के दिन का सा कौन सा दिन होगा। हमारी आँखों की पुतलियों से जिससे चैन हैं, उस लाडले इकलौते का ब्याह और हम तीनों का हिरनों के रूप से निकलकर फिर राज पर बैठना। पहले तो यह चाहिए जिन जिन की बेटियाँ बिन ब्याहियाँ हों, उन सब को उतना कर दो जो अपनी जिस चाव चीज से चाहेंय अपनी गुडियाँ सँवार के उठावेंय और तब तक जीती रहें, सब की सब हमारे यहाँ से खाया पकाया रींधा करें। और सब राज भर की बेटियाँ सदा सुहागनें बनी रहें और सूहे रातें छुट कभी कोई कुछ न पहना करें और सोने रूपे के केवाड गंगाजमुनी सब घरों में लग जाएँ और सब कोठों के माथे पर केसर और चंदन के टीके लगे हों। और जितने पहाड हमारे देश में हों, उतने ही पहाड सोने रूपे के आमने सामने खडे हो जाएँ और सब डाँगों की चोटियाँ मोतियों की माँग ताँगे भर जाएँय और फूलों के गहने और बँ धनवार से सब झाड पहाड लदे फँदे रहेंय और इस राज से लगा उस राज तक अधर में छत सी बाँध दो। और चप्पा चप्पा कहीं ऐसा न रहें जहाँ भीड भडक्का धूम धडक्का न हो जाय। फूल बहुत सारे बहा दो जो नदियाँ जैसे सचमुच फूल की बहियाँ हैं यह समझा जाय। और यह डौल कर दो, जिधर से दुल्हा को ब्याहने चढे सब लाड ली और हीरे पन्ने पोखराज की उमड में इधर और उधर कबैल की टट्टियाँ बन जायँ और क्यारियाँ सी हो जायें जिनके बीचो बीच से हो निकलें। और कोई डाँग और पहाडी तली का चढाव उतार ऐसा दिखाई न दे जिसकी गोद पंखुरियों से भरी हुई न हों।
इस धूमधाम के साथ कुँवर उदैभान सेहरा बाँधे दूल्हन के घर तक आ पहुँचा और जो रीतें उनके घराने में चली आई थीं, होने लगियाँ। मदनबान रानी केतकी से ठठोली करके बोली-लीजिए, अब सुख समेटिए, भर भर झोली। सिर निहुराए, क्या बैठी हो, आओ न टुक हम तुम मिल के झरोखों से उन्हें झाँकें। रानी केतकी ने कहा-न री, ऐसी नीच बातें न कर। हमें ऐसी क्या पडी जो इस घडी ऐसी झेल कर रेल पेल ऐसी उठें और तेल फुलेल भरी हुई उनके झाँकने को जा खडी हों। बदनबान उसकी इस रूखाई को उड नझाई की बातों में डालकर बोली- बोलचाल मदनबान की अपनी बोली के दोनों में- यों तो देखो वाछडे जी वा छडे जी वा छडे। हम से जो आने लगी हैं आप यों मुहरे कडेघ् छान मारे बन के बन थे आपने जिनके लिये। वह हिरन जीवन के मद में हैं बने दूल्हा खडेघ् तुम न जाओ देखने को जो उन्हें क्या बात है। ले चलेंगी आपको हम हैं इसी धुन पर अडे। है कहावत जी को भावै और यों मुडिया हिले। झांकने के ध्यान में उनके हैं सब छोटे बडे।। साँस ठंडी भरके रानी केतकी बोली कि सच। सब तो अच्छा कुछ हुआ पर अब बखेडे में पडेघ् वारी फेरी होना मदनबान का रानी केतकी पर और उसकी बास सूँघना और उनींदे पन से ऊंघना उस घडी मदनबान को रानी केतकी का बादले का जूडा और भीना भीनापन और अँखडियों का लजाना और बिखरा बिखरा जाना भला लग गया, तो रानी केतकी की बास सँूघने लगी और अपनी आँखों को ऐसा कर लिया जैसे कोई ऊँघने लगता है। सिर से लगा पाँव तक वारी फेरी होके तलवे सुहलाने लगी। तब रानी केतकी झट एक धीमी सी सिसकी लचके के साथ ले ऊठी रू मदनबान बोली-मेरे हाथ के टहोके से, वही पांव का छाला दुख गया होगा जो हिरनों की ढूँढने में पड गया था। इसी दुरूख की चुटकी से रानी केतकी ने मसोस कर कहा-काटा अडा तो अडा, छाला पडा तो पडा, पर निगोडी तू क्यों मेरी पनछाला हुई। सराहना रानी केतकी के जोबन का केतकी का भला लगना लिखने पढने से बाहर है। वह दोनों भैवों का खिंचावट और पुतलियों में लाज की समावट और नुकीली पलकों की रूँ धावट हँसी की लगावट और दंतडियों में मिस्सी की ऊदाहट और इतनी सी बात पर रूकावट है। नाक और त्योरी का चढा लेना, सहेलियों को गालियाँ देना और चल निकलना और हिरनों के रूप में करछालें मारकर परे उछलना कुछ कहने में नहीं आता। सराहना कुँवर जी के जोबन का कुँवर उदैभान के अच्छेपन का कुछ हाल लिखना किससे हो सके। हाय रे उनके उभार के दिनों का सुहानापन, चाल ढाल का अच्छन बच्छन, उठती हुई कोंपल की काली फबन और मुखडे का गदराया हुआ जोबन जैसे बडे तड के धुंधले के हरे भरे पहाडों की गोद से सूरज की किरनें निकल आती हैं। यही रूप था। उनकी भींगी मसों से रस टपका पडता था। अपनी परछाँई देखकर अकडता जहाँ जहाँ छाँव थी, उसका डौल ठीक ठीक उनके पाँव तले जैसे धूप थी। दूल्हा का सिंहासन पर बैठना दूल्हा उदैभान सिंहासन पर बैठा और इधर उधर राजा इंदर और जोगी महेंदर गिर जम गए और दूल्हा का बाप अपने बेटे के पीछे माला लिये कुछ गुनगुनाने लगा। और नाच लगा होने और अधर में जो उड न खटोले राजा इंदर के अखाडे के थे। सब उसी रूप से छत बाँधे थिरका किए। दोनों महारानियाँ समधिन बन के आपस में मिलियाँ चलियाँ और देखने दाखने को कोठों पर चन्दन के किवाडों के आड तले आ बैठियाँ। सर्वाग संगीत भँड ताल रहस हँसी होने लगी। जितनी राग रागिनियाँ थीं, ईमन कल्यान, सुध कल्यान झिंझोटी, कन्हाडा, खम्माच, सोहनी, परज, बिहाग, सोरठ, कालंगडा, भैरवी, गीत, ललित भैरी रूप पकडे हुए सचमुच के जैसे गाने वाले होते हैं, उसी रूप में अपने अपने समय पर गाने लगे और गाने लगियाँ। उस नाच का जो ताव भाव रचावट के साथ हो, किसका मुंह जो कह सके। जितने महाराजा जगतपरकास के सुखचैन के घर थे, माधो बिलास, रसधाम कृष्ण निवास, मच्छी भवन, चंद भवन सबके सब लप्पे लपेटे और सच्ची मोतियों की झालरें अपनी अपनी गाँठ में समेटे हुए एक भेस के साथ मतवालों के बैठनेवालों के मुँह चूम रहे थे।
पर कुंवर जी का रूप क्या कहूं। कुछ कहने में नहीं आता। न खाना, न पीना, न मग चलना, न किसी से कुछ कहना, न सुनना। जिस स्थान में थे उसी में गुथे रहना और घडी-घडी कुछ सोच सोच कर सिर धुनना। होते-होते लोगों में इस बात का चरचा फैल गई। किसी किसी ने महाराज और महारानी से कहा - कुछ दाल में काला है। वह कुंवर बुरे तेवर और बेडौल आंखें दिखाई देती हैं। घर से बाहर पांव नहीं धरना। घरवालियां जो किसी डौल से बहलातियां हैं, तो और कुछ नहीं करना, ठंडी ठंडी सांसें भरता है। और बहुत किसी ने छेडा तो छपरखट पर जाके अपना मुंह लपेट के आठ आठ आंसू पडा रोता है। यह सुनते ही कुंवर उदैभान के माँ-बाप दोनों दौड आए। गले लगाया, मुंह चूम पांच पर बेटे के गिर पडे हाथ जोडे और कहा - जो अपने जी की बात है सो कहते क्यों नहीं? क्या दुखडा है जो पडे-पडे कहराते हो? राज-पाट जिसको चाहो दे डालो। कहो तो क्या चाहते हो? तुम्हारा जी क्यों नहीं लगता? भला वह क्या है जो नहीं हो सकता? मुंह से बोलो जी को खोलो। जो कुछ कहने से सोच करते हों, अभी लिख भेजो। जो कुछ लिखोगे, ज्यों की त्यों करने में आएगी। जो तुम कहो कुंए में गिर पडो, तो हम दोनों अभी गिर पडते हैं। कहो - सिर काट डालो, तो सिर अपने अभी काट डालते हैं। कुंवर उदैभान, जो बोलते ही न थे, लिख भेजने का आसरा पाकर इतना बोले - अच्छा आप सिधारिए, मैं लिख भेजता हूं। पर मेरे उस लिखे को मेरे मुंह परकिसी ढब से न लाना। इसीलिए मैं मारे लाज के मुखपाट होके पडा था और आपसे कुछ न कहना था। यह सुनकर दोनों महाराज और महारानी अपने स्थान को सिधारे। तब कुंवर ने यह लिख भेजा - अब जो मेरा जी होंठों पर आ गया और किसी डौल न रहा गया और आपने मुझे सौ-सौ रूप से खोल और बहुत सा टटोला, तब तो लाज छोड के हाथ जोड के मुंह फाड के घिघिया के यह लिखता हूं- चाह के हाथों किसी को सुख नहीं। है भला वह कौन जिसको दुख नहींघ् उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, एक हिरनी मेरे सामने कनौतियां उठाए आ गई। उसके पीछे मैंने घोडा बगछुट फेंका। जब तक उजाला रहा, उसकी धुन में बहका किया। जब सूरज डूबा मेरा जी बहुत ऊबा। सुहानी सी अमराइयां ताड के मैं उनमें गया, तो उन अमराइयों का पत्ता-पत्त्ता मेरे जी का गाहक हुआ। वहां का यह सौहिला है। कुछ रंडियां झूला डाले झूल रही थीं। उनकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराज जगतपरकास की बेटी हैं। उन्होंने यह अंगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अंगूठी उन्होंने ले ली और लिखौट भी लिख दी। सो यह अंगूठी लिखौट समेत मेरे लिखे हुए के साथ पहुंचती है। अब आप पढ लीजिए। जिसमें बेटे का जी रह जाय, सो कीजिए। महाराज और महारानी ने अपने बेटे के लिखे हुए पर सोने के पानी से यों लिखा - हम दोनों ने इस अंगूठी और लिखौट को अपनी आंखों से मला। अब तुम इतने कुछ कुढो पचो मत। जो रानी केतकी के मां बाप तुम्हारी बात मानते हैं, तो हमारे समधी और समधिन हैं। दोनों राज एक हो जाएंगे। और जो कुछ नांह - नूंह ठहरेगी तो जिस डौल से बन आवेगा, ढाल तलवार के बल तुम्हारी दुल्हन हम तुमसे मिला देंगे। आज से उदास मत रहा करो। खेलो, कूदो, बोलो चालो, आनंदें करो। अच्छी घडी- शुभ मुहूरत सोच के तुम्हारी ससुराल में किसी ब्राह्मन को भेजते हैंय जो बात चीत चाही ठीक कर लावे और शुभ घडी शुभ मुहूरत देख के रानी केतकी के मां-बाप के पास भेजा। ब्राह्मन जो शुभ मुहूरत देखकर हडबडी से गया था, उस पर बुरी घडी पडी। सुनते ही रानी केतकी के मां-बाप ने कहा - हमारे उनके नाता नहीं होने का।
उनके बाप-दादे हमारे बाप दादे के आगे सदा हाथ जोडकर बातें किया करते थे और दो टुक जो तेवरी चढी देखते थे, बहुत डरते थे। क्या हुआ, जो अब वह बढ गए, ऊंचे पर चढ गए। जिनके माथे हम न बाएं पांव के अंगूठे से टीका लगावें, वह महाराजों का राजा हो जावे। किसी का मुंह जो यहबात हमारे मुंह पर लावे! ब्राह्मण ने जल-भुन के कहा - अगले भी बिचारे ऐसे ही कुछ हुए हैं। राजा सूरजभान भी भरी सभा में कहते थे - हममें उनमें कुछ गोत का तो मेल नहीं। यह कुंवर की हठ से कुछ हमारी नहीं चलती। नहीं तो ऐसी ओछी बातें कब हमारे मुंह से निकलती। यह सुनते ही उन महाराज ने ब्राह्मन के सिर पर फूलों की चंगेर फेंक मारी और कहा - जो ब्राह्मण की हत्या का धडका न होता तो तुझको अभी चक्की में दलवा डालता। और अपने लोगों से कहा- इसको ले जाओ और ऊपर एक अंधेरी कोठरी में मूंद रक्खो। जो इस ब्राह्मन पर बीती सो सब उदैभान ने सुनी। सुनते ही लडने के लिए अपना ठाठ बांध के भादों के दल बादल जैसे घिर आते हैं, चढ आया। जब दोनों महाराजों में लडाई होने लगी, रानी केतकी सावन-भादों के रूप रोने लगीय और दोनों के जी में यह आ गई - यह कैसी चाहत जिसमें लोह बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा।
इन पापियों से कुछ न चलेगी, यह जानते थे। राजपाट हमारा अब निछावर करके जिसको चाहिए, दे डालिएय राज हम से नहीं थम सकता। सूरजभान के हाथ से आपने बचाया। अब कोई उनका चचा चंद्रभान चढ आवेगा तो क्योंकर बचना होगा? अपने आप में तो सकत नहीं। फिर ऐसे राज का फिट्टे मुंह कहां तक आपको सताया करें। जोगी महेंदर गिर ने यह सुनकर कहा - तुम हमारे बेटा बेटी हो, अनंदे करो, दनदनाओ, सुख चैन से रहो। अब वह कौन है जो तुम्हें आंख भरकर और ढब से देख सके। यह बघंबर और यह भभूत हमने तुमको दिया। जो कुछ ऐसी गाढ पडे तो इसमें से एक रोंगटा तोड आग में फूंक दीजियो। वह रोंगटा फुकने न पावेगा जो बात की बात में हम आ पहुंचेंगे। रहा भभूत, सो इसीलिए है जो कोई इसे अंजन करे, वह सबको देखें और उसे कोई न देखें, जो चाहे सो करें। जाना गुरुजी का राजा के घर गुरु महेंदर गिर के पांव पूजे और धनधन महाराज कहे। उनसे तो कुछ छिपाव न था। महाराज जगतपरकास उनको मुर्छल करते हुए अपनी रानियों के पास ले गए। सोने रूपे के फूल गोद भर-भर सबने निछावर किए और माथे रगडे। उन्होंने सबकी पीठें ठोंकी। रानीकेतकी ने भी गुरुजी को दंडवत कीय पर जी में बहुत सी गुरु जी को गालियां दी। गुरुजी सात दिन सात रात यहां रहकर जगतपरकास को सिंघासन पर बैठाकर अपने बंधवर पर बैठ उसी डौल से कैलाश पर आ धमके और राजा जगत परकास अपने अगले ढब से राज करने लगा। रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना और पिछली बातों का ध्यान कर जान से हाथ धोना। दोहरा (अपनी बोली की धुन में) रानी को बहुत सी बेकली थी। कब सूझती कुछ बुरी भली थीघ् चुपके-चुपके कराहती थी। जीना अपना न चाहती थीघ् कहती थी कभी अरी मदनबान। हैं आठ पर मुझे वही ध्यानघ् यां प्यास किसे किसे भला भूख। देखूं वही फिर हरे हरे रुखघ् टपके का डर है अब यह कहिए। चाहत का घर है अब यह कहिएघ् अमराइयों में उनका वह उतरना। और रात का सांय सांय करनाघ् और चुपके से उठके मेरा जाना। और तेरा वह चाह का जतानाघ् उनकी वह उतार अंगूठी लेनी। और अपनी अंगूठी उनको देनीघ् आंखों में मेरे वह फिर रही है। जी का जो रूप था वही हैघ् क्योंकर उन्हें भूलूं क्या करूं मैं। मां बाप से कब तक डरूं मैंघ् अब मैंने सुना है ऐ मदनबान। बन बन के हिरन हुए उदयभानघ् चरते होंगे हरी हरी दूब। कुछ तू भी पसीज सोच में डूबघ् मैं अपनी गई हूं चैकडी भूल। मत मुझको सुंघा यह डहडहे फूलघ् फूलों को उठाके यहां से ले जा। सौ टुकडे हुआ मेरा कलेजाघ् बिखरे जी को न कर इकट्ठा। एक घास का ला के रख दे गट्ठाघ् हरियाली उसी की देख लूं मैं। कुछ और तो तुझको क्या कहूं मैंघ् इन आंखों में है फडक हिरन की। पलकें हुई जैसे घासवन कीघ् जब देखिए डबडबा रही हैं। ओसें आंसू की छा रही हैंघ् यह बात जो जी में गड गई है। एक ओस-सी मुझ पे पड गई है। इसी डौल जब अकेली होती तो मदनवान के साथ ऐसे कुछ मोती पिरोती। रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदनवान का साथ देने से नाहीं करना और लेना उसी भभूत का, जो गुरुजी दे गए थे, आँख मिचैबल के बहाने अपनी मां रानी कामलता से। एक रात रानी केतकी ने अपनी मां रानी कामलता को भुलावे में डालकर यों कहा और पूछा - गुरुजी गुसाई महेंदर गिर ने जो भभूत मेरे बाप को दिया है, वह कहां रक्खा है और उससे क्या होता है? रानी कामलता बोल उठी - आंख मिचैवल खेलने के लिए चाहती हूं। जब अपनी सहेलियों के साथ खेलूं और चोर बनूं तो मुझको कोई पकड न सके। महारानी ने कहा - वह खेलने के लिए नहीं है। ऐसे लटके किसी बुरे दिन के संभलने को डाल रखते हैं। क्या जाने कोई घडी कैसी है, कैसी नहीं। रानी केतकी अपनी मां की इस बात पर अपना मुंह थुथा कर उठ गई और दिन भर खाना न खाया। महाराज ने जो बुलाया तो कहा मुझे रूच नहीं। तब रानी कामलता बोल उठी - अजी तुमने सुना भी, बेटी तुम्हारी आंख मिचैवल खेलने के लिए वह भभूत गुरुजी का दिया मांगती थी। मैंने न दिया और कहा, लडकी यह लडकपन की बातें अच्छी नहीं। किसी बुरे दिन के लिए गुरुजी गए हैं। इसी पर मुझसे रूठी है। बहुतेरा बहलाती है, मानती नहीं।
राजा इंदर का कुँवर उदैभान का साथ करना राजा इंदर ने कह दिया, वह रंडियाँ चुलबुलियाँ जो अपने मद में उड चलियाँ हैं, उनसे कह दो-सोलहो सिंगार, बास गूँधमोती पिरो अपने अचरज और अचंभे के उड न खटोलों का इस राज से लेकर उस राज तक अधर में छत बाँध दो। कुछ इस रूप से उड चलो जो उडन-खटोलियों की क्यारियाँ और फुलवारियाँ सैंकडों कोस तक हो जायें। और अधर ही अधर मृदंग, बीन, जलतरंग, मँुहचग, घँुगरू, तबले घंटताल और सैकडों इस ढब के अनोखे बाजे बजते आएँ। और उन क्यारियों के बीच में हीरे, पुखराज, अनवेधे मोतियों के झाड और लाल पटों की भीड भाड की झमझमाहट दिखाई दे और इन्हीं लाल पटों में से हथफूल, फूलझडियाँ, जाही जुही, कदम, गेंदा, चमेली इस ढब से छूटने लगें तो देखने वालों को छातियों के किवाड खुल जायें। और पटाखे जो उछल उछल फूटें, उनमें हँसती सुपारी और बोलती करोती ढल पडे। और जब तुम सबको हँसी आवे, तो चाहिए उस हँसी से मोतियों की लडियाँ झडें जो सबके सब उनको चुन चुनके राजे हो जायें। डोमनियों के जो रूप में सारंगियाँ छेड छेड सोहलें गाओ। दोनों हाथ हिलाके उगलियाँ बचाओ। जो किसी ने न सुनी हो, वह ताव भाव वह चाव दिखाओय ठुड्डियाँ गिनगिनाओ, नाक भँवे तान तान भाव बताओय कोई छुटकर न रह जाओ। ऐसा चाव लाखों बरस में होता है। जो जो राजा इंदर ने अपने मुँह से निकाला था, आँख की झपक के साथ वही होने लगा। और जो कुछ उन दोनों महाराजों ने कह दिया था, सब कुछ उसी रूप से ठीक ठीक हो गया। जिस ब्याह की यह कुछ फैलावट और जमावट और रचावट ऊपर तले इस जमघट के साथ होगी, और कुछ फैलावा क्या कुछ होगा, यही ध्यान कर लो। ठाटो करना गोसाई महेंदर गिर का जब कुँवर उदैभान को वे इस रूप से ब्याहने चढे और वह ब्राह्मन जो अँधेरी कोठरी से मुँदा हुआ था, उसको भी साथ ले लिया और बहुत से हाथ जोडे और कहा-ब्राह्मन देवता हमारे कहने सुनने पर न जाओ। तुम्हारी जो रीत चली आई है, बताते चलो। एक उडन खटोले पर वह भी रीत बता के साथ हो लिया। राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर ऐरावत हाथी ही पर झूलते झालते देखते भालते चले जाते थे। राजा सूरजभान दुल्हा के घोडे के साथ माला जपता हुआ पैदल था। इसी में एक सन्नाटा हुआ। सब घबरा गए। उस सन्नाटे में से जो वह 90 लाख अतीत थे, अब जोगी से बने हुए सब माले मोतियों की लडियों की गले में डाले हुए और गातियाँ उस ढब की बाँधे हुए मिरिगछालों और बघंबरों पर आ ठहर गए। लोगों के जियों में जितनी उमंगें छा रही थी, वह चैगुनी पचगुनी हो गई। सुखपाल और चंडोल और रथों पर जितनी रानियाँ थीं, महारानी लछमीदास के पीछे चली आतियाँ थीं। सब को गुदगुदियाँ सी होने लगीं इसी में भरथरी का सवाँग आया। कहीं जोगी जातियाँ आ खडे हुए। कहीं कहीं गोरख जागे कहीं मुछंदारनाथ भागे। कहीं मच्छ कच्छ बराह संमुख हुए, कहीं परसुराम, कहीं बामन रूप, कहीं हरनाकुस और नरसिंह, कहीं राम लछमन सीता सामने आई, कहीं रावन और लंका का बखेडा सारे का सारा सामने दिखाई देने लगा कहीं कन्हैया जी की जनम अष्टमी होना और वसुदेव का गोकुल ले जाना और उनका बढ चलना, गाए चरानी और मुरली बजानी और गोपियों से धूमें मचानी और राधिका रहस और कुब्जा का बस कर लेना, वही करील की कुंजे, बसीबट, चीरघाट, वृंदावन, सेवाकुंज, बरसाने में रहना और कन्हैया से जो जो हुआ था, सब का सब ज्यों की त्यों आँखों में आना और द्वारका जाना और वहाँ सोने का घर बनाना, इधर बिरिज को न आना और सोलह सौ गोपियों का तलमलाना सामने आ गया। उन गोपियों में से ऊधो क हाथ पकड कर एक गोपी के इस कहने ने सबको रूला दिया जो इस ढब से बोल के उनसे रूँधे हुए जी को खोले थी। चैचुक्का जब छांडि करील को कुँजन को हरि द्वारिका जीउ माँ जाय बसे। कलधौत के धाम बनाए घने महाजन के महाराज भये। तज मोर मुकुट अरू कामरिया कछु औरहि नाते जाड लिए। धरे रूप नए किए नेह नए और गइया चरावन भूल गए। अच्छापन घाटों का कोई क्या कह सके, जितने घाट दोनों राज की नदियों में थे, पक्के चाँदी के थक्के से होकर लोगों को हक्का बक्का कर रहे थे। निवाडे, भौलिए, बजरे, लचके, मोरपंखी, स्यामसुंदर, रामसुंदर, और जितनी ढब की नावे थीं, सुनहरी रूपहरी, सजी सजाई कसी कसाई और सौ सौ लचकें खातियाँ, आतियाँ, जातियाँ, ठहरातियाँ, फिरातियाँ थीं। उन सभी पर खचाखच कंचनियाँ, रामजनियाँ, डोमिनियाँ भरी हुई अपने अपने करतबों में नाचती गाती बजाती कूदती फाँदती घूमें मचातियाँ अँगडातियाँ जम्हातियाँ उँगलियाँ नचातियाँ और ढुली पड तियाँ थीं और कोई नाव ऐसी न थी जो साने रूपे के पत्तरों से मढी हुई और सवारी से भरी हुई न हो। और बहुत सी नावों पर हिंडोले भी उसी डब के थे। उन पर गायनें बैठी झुलती हुई सोहनी, केदार, बागेसरी, काम्हडों में गा रही थीं। दल बादल ऐसे नेवाडों के सब झीलों में छा रहे थे।
आ पहुँचना कुँवर उदैभान का ब्याह के ठाट के साथ दूल्हन की ड्योढी पर बीचों बीच सब घरों के एक आरसी धाम बना था जिसकी छत और किवाड और आंगन में आरसी छुट कहीं लकडी, ईट, पत्थर की पुट एक उँगली के पोर बराबर न लगी थी। चाँदनी सा जोडा पहने जब रात घडी एक रह गई थी। तब रानी केतकी सी दुल्हन को उसी आरसी भवन में बैठकर दूल्हा को बुला भेजा। कुँवर उदैभान कन्हैया सा बना हुआ सिर पर मुकुट धरे सेहरा बाँधे उसी तडावे और जमघट के साथ चाँद सा मुखडा लिए जा पहुँचा। जिस जिस ढब में ब्राह्मन और पंडित बहते गए और जो जो महाराजों में रीतें होती चली आई थी, उसी डौल से उसी रूप से भँवरी गँठजोडा हो लिया। अब उदैभान और रानी केतकी दोनों मिले। घास के जो फूल कुम्हालाए हुए थे फिर खिलेघ् चैन होता ही न था जिस एक को उस एक बिन। रहने सहने सो लगे आपस में अपने रात दिनघ् ऐ खिलाडी यह बहुत सा कुछ नहीं थोडा हुआ। आन कर आपस में जो दोनों का, गठजोडा हुआ। चाह के डूबे हुए ऐ मेरे दाता सब तिरें। दिन फिरे जैसे इन्हों के वैसे दिन अपने फिरेंघ् वह उड नखटोलीवालियाँ जो अधर में छत सी बाँधे हुए थिरक रही थी, भर भर झोलियाँ और मुठ्ठियाँ हीरे और मोतियाँ से निछावर करने के लिए उतर आइयाँ और उडन-खटोले अधर में ज्यों के त्यों छत बाँधे हुए खडे रहे। और वह दूल्हा दूल्हन पर से सात सात फेरे वारी फेर होने में पिस गइयाँ। सभों को एक चुपकी सी लग गई। राजा इंदर ने दूल्हन को मुँह दिखाई में एक हीरे का एक डाल छपरखट और एक पेडी पुखराज की दी और एक परजात का पौधा जिसमें जो फल चाहो सो मिले, दूल्हा दूल्हन के सामने लगा दिया। और एक कामधेनू गाय की पठिया बछिया भी उसके पीछे बाँध दी और इक्कीस लौंडि या उन्हीं उडन-खटोलेवालियों में से चुनकर अच्छी से अच्छी सुथरी से सुथरी गाती बजातियाँ सीतियाँ पिरोतियाँ और सुघर से सुघर सौंपी और उन्हें कह दिया-रानी केतकी छूट उनके दूल्हा से कुछ बातचीत न रखना, नहीं तो सब की सब पत्थर की मूरत हो जाओगी और अपना किया पाओगी। और गोसाई महेंदर गिर ने बावन तोले पाख रत्ती जो उसकी इक्कीस चुटकी आगे रक्खी और कहा-यह भी एक खेल है। जब चाहिए, बहुत सा ताँबा गलाके एक इतनी सी चुटकी छोड दीजैय कंचन हो जायेगा। और जोगी जी ने सभी से यह कह दिया-जो लोग उनके ब्याह में जागे हैं, उनके घरों में चालीस दिन रात सोने की नदियों के रूप में मनि बरसे। जब तक जिएँ, किसी बात को फिर न तरसें। 9 लाख 99 गायें सोने रूपे की सिगौरियों की, जड जडाऊ गहना पहने हुए, घुँघरू छमछमातियाँ महंतों को दान हुई और सात बरस का पैसा सारे राज को छोड दिया गया। बाईस सौ हाथी और छत्तीस सौ ऊँट रूपयों के तोडे लादे हुए लुटा दिए। कोई उस भीड भाड में दोनों राज का रहने वाला ऐसा न रहा जिसको घोडा, जोडा, रूपयों का तोडा, जडाऊ कपडों के जोडे न मिले हो। और मदनबान छुट दूल्हा दूल्हन के पास किसी का हियाव न था जो बिना बुलाये चली जाए। बिना बुलाए दौडी आए तो वही और हँसाए तो वही हँसाए। रानी केतकी के छेडने के लिए उनके कुँवर उदैभान को कुँवर क्योडा जी कहके पुकारती थी और ऐसी बातों को सौ सौ रूप से सँवारती थी। दोहरा घर बसा जिस रात उन्हीं का तब मदनबान उसी घडी। कह गई दूल्हा दुल्हन से ऐसी सौ बातें कडीघ् जी लगाकर केवडे से केतकी का जी खिला। सच है इन दोनों जियों को अब किसी की क्या पडीघ् क्या न आई लाज कुछ अपने पराए की अजी। थी अभी उस बात की ऐसी भला क्या हडबडीघ् मुसकरा के तब दुल्हन ने अपने घूँघट से कहा। मोगरा सा हो कोई खोले जो तेरी गुलछडीघ् जी में आता है तेरे होठों को मलवा लूँ अभी। बल बें ऐं रंडी तेरे दाँतों की मिस्सी की घडीघ्
बहुत दिनों पीछे कहीं रानी केतकी भी हिरनों की दहाडों में उदैभान उदैभान चिघाडती हुई आ निकली। एक ने एक को ताडकर पुकारा-अपनी तनी आँखें धो डालो। एक डबरे पर बैठकर दोनों की मुठभेड हुई। गले लग के ऐसी रोइयाँ जो पहाडों में कूक सी पड गई। दोहरा छा गई ठंडी साँस झाडों में। पड गई कूक सी पहाडों में। दोनों जनियाँ एक अच्छी सी छांव को ताडकर आ बैठियाँ और अपनी अपनी दोहराने लगीं। बातचीत रानी केतकी की मदनबान के साथ रानी केतकी ने अपनी बीती सब कही और मदनबान वही अगला झींकना झीका की और उनके माँ-बाप ने जो उनके लिये जोग साधा था, जो वियोग लिया था, सब कहा। जब यह सब कुछ हो चुकी, तब फिर हँसने लगी। रानी केतकी उसके हंसने पर रूककर कहने लगी- दोहरा हम नहीं हँसने से रूकते, जिसका जी चाहे हँसे। हैं वही अपनी कहावत आ फँसे जी आ फँसेघ् अब तो सारा अपने पीछे झगडा झाँटा लग गया। पाँव का क्या ढूँढती हाजी में काँटा लग गयाघ् पर मदनबान से कुछ रानी केतकी के आँसू पँुछते चले। उन्ने यह बात कही-जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उजडे हुए माँ-बाप को ले आऊँ और उन्हीं से इस बात को ठहराऊँ। गोसाई महेंदर गिर जिसकी यह सब करतूत है, वह भी इन्हीं दोनों उजडे हुओं की मुट्ठी में हैं। अब भी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान चढें, तो गए हुए दिन फिर सकते हैं। पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं, हम क्या पडी बकती है। मैं इस पर बीडा उठाती हूँ। बहुत दिनों पीछे रानी केतकी ने इस पर अच्छा कहा और मदनबान को अपने माँ-बाप के पास भेजा और चिट्ठी अपने हाथों से लिख भेजी जो आपसे हो सके तो उस जोगी से ठहरा के आवें। मदनबान का महाराज और महारानी के पास फिर आना चितचाही बात सुनना मदनबान रानी केतकी को अकेला छोड कर राजा जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड पर बैठी थीं, झट से आदेश करके आ खडी हुई और कहने लगी-लीजे आप राज कीजे, आपके घर नए सिर से बसा और अच्छे दिन आये। रानी केतकी का एक बाल भी बाँका नहीं हुआ। उन्हीं के हाथों की लिखी चिट्ठी लाई हूँ, आप पढ लीजिए। आगे जो जी चाहे सो कीजिए। महाराज ने उस बधंबर में एक रोंगटा तोड कर आग पर रख के फूँक दिया। बात की बात में गोसाई महेंदर गिर आ पहुँचा और जो कुछ नया सर्वाग जोगी-जागिन का आया, आँखों देखाय सबको छाती लगाया और कहा- बघंबर इसीलिये तो मैं सौंप गया था कि जो तुम पर कुछ हो तो इसका एक बाल फूँक दीजियो। तुम्हारी यह गत हो गई। अब तक क्या कर रहे थे और किन नींदों में सोते थे? पर तुम क्या करो यह खिलाडी जो रूप चाहे सौ दिखावे, जो नाच चाहे सौ नचावे। भभूत लडकी को क्या देना था। हिरनी हिरन उदैभान और सूरजभान उसके बाप और लछमीबास उनकी माँ को मैंने किया था। फिर उन तीनों को जैसा का तैसा करना कोई बडी बात न थी। अच्छा, हुई सो हुई। अब उठ चलो, अपने राज पर विराजो और ब्याह को ठाट करो। अब तुम अपनी बेटी को समेटो, कुँवर उदैभान को मैंने अपना बेटा किया और उसको लेके मैं ब्याहने चढूँगा। महाराज यह सुनते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उसी घडी यह कह दिया सारी छतों और कोठों को गोटे से मढो और सोने और रूपे के सुनहरे सेहरे सब झाड पहाडों पर बाँध दो और पेडों में मोती की लडियाँ बाँध दो और कह दो, चालीस दिन रात तक जिस घर में नाच आठ पहर न रहेगा, उस घर वाले से मैं रूठा रहूँगा, और छरू महिने कोई चलने वाला कहीं न ठहरे। रात दिन चला जावे। इस हेर फेर में वह राज था। सब कहीं यही डौल था। जाना महाराज, महारानी और गुसाई महेंदर गिर का रानी केतकी के लिये फिर महाराज और महारानी और महेंदर गिर मदनबान के साथ जहाँ रानी केतकी चुपचाप सुन खींचे हुए बैठी हुई थी, चुप चुपाते वहाँ आन पहुँचे। गुरूजी ने रानी केतकी को अपने गोद में लेकर कुँवर उदैभान का चढावा दिया और कहा-तुम अपने माँ-बाप के साथ अपने घर सिधारो। अब मैं बेटे उदैभान को लिये हुए आता हूं। गुरूजी गोसाई जिनको दंडित है, सो तो वह सिधारते हैं। आगे जो होगी सो कहने में आवेंगी-यहाँ पर धूमधाम और फैलावा अब ध्यान कीजिये। महाराज जगतपरकास ने अपने सारे देश में कह दिया-यह पुकार दे जो यह न करेगा उसकी बुरी गत होवेगी। गाँव गाँव में अपने सामने छिपोले बना बना के सूहे कपडे उन पर लगा के मोट धनुष की और गोखरू, रूपहले सुनहरे की किरनें और डाँक टाँक टाँक रक्खो और जितने बड पीपल नए पुराने जहाँ जहाँ पर हों, उनके फूल के सेहरे बडे-बडे ऐसे जिसमें सिर से लगा पैदा तलक पहुँचे बाँधो।
चैतुक्का पौदों ने रंगा के सूहे जोडे पहने।
सब पाँण में डालियों ने तोडे पहने।।
बूटे बूटे ने फूल फूल के गहने पहने। जो बहुत न थे तो थोडे-थोडे पहनेघ् जितने डहडहे और हरियावल फल पात थे, सब ने अपने हाथ में चहचही मेहंदी की रचावट के साथ जितनी सजावट में समा सके, कर लिये और जहाँ जहाँ नई ब्याही ढुलहिनें नन्हीं नन्हीं फलियों की ओर सुहागिनें नई नई कलियों के जोडे पंखुडियों के पहने हुए थीं। सब ने अपनी गोद सुहाय और प्यार के फूल और फलों से भरी और तीन बरस का पैसा सारे उस राजा के राज भर में जो लोग दिया करते थे जिस ढण से हो सकता था खेती बारी करके, हल जोत के और कपडा लत्ता बेंचकर सो सब उनको छोड दिया और कहा जो अपने अपने घरों में बनाव की ठाट करें। और जितने राज भर में कुएँ थे, खँड सालों की खँडसालें उनमें उडेल गई और सारे बानों और पहाड तनियाँ में लाल पटों की झमझमाहट रातों को दिखाई देने लगी। और जितनी झीलें थीं उनमें कुसुम और टेसू और हरसिंगार पड गया और केसर भी थोडी थोडी घोले में आ गई।
000

शुक्रवार, 6 मार्च 2015

दुलाईवाली

बंग महिला 

काशी जी के दशाश्विमेध घाट पर स्नाअन करके एक मनुष्यो बड़ी व्युग्रता के साथ गोदौलिया की तरफ आ रहा था। एक हाथ में एक मैली-सी तौलिया में लपेटी हुई भीगी धोती और दूसरे में सुरती की गोलियों की कई डिबियाँ और सुँघनी की एक पुड़िया थी। उस समय दिन के ग्या रह बजे थे, गोदौलिया की बायीं तरफ जो गली है, उसके भीतर एक और गली में थोड़ी दूर पर, एक टूटे-से पुराने मकान में वह जा घुसा। मकान के पहले खण्डए में बहुत अँधेरा था; पर उपर की जगह मनुष्य- के वासोपयोगी थी। नवागत मनुष्यघ धड़धड़ाता हुआ ऊपर चढ़ गया। वहाँ एक कोठरी में उसने हाथ की चीजें रख दीं। और, 'सीता! सीता!' कहकर पुकारने लगा।
"क्या, है?" कहती हुई एक दस बरस की बालिका आ खड़ी हुई, तब उस पुरुष ने कहा, "सीता! जरा अपनी बहन को बुला ला।"
"अच्छाक", कहकर सीता गई और कुछ देर में एक नवीना स्त्रीच आकर उपस्थित हुई। उसे देखते ही पुरुष ने कहा, "लो, हम लोगों को तो आज ही जाना होगा!"
इस बात को सुनकर स्त्रीध कुछ आश्चगर्ययुक्तज होकर और झुँझलाकर बोली, "आज ही जाना होगा! यह क्योंत? भला आज कैसे जाना हो सकेगा? ऐसा ही था तो सवेरे भैया से कह देते। तुम तो जानते हो कि मुँह से कह दिया, बस छुट्टी हुई। लड़की कभी विदा की होती तो मालूम पड़ता। आज तो किसी सूरत जाना नहीं हो सकता!"
"तुम आज कहती हो! हमें तो अभी जाना है। बात यह है कि आज ही नवलकिशोर कलकत्ते से आ रहे हैं। आगरे से अपनी नई बहू को भी साथ ला रहे हैं। सो उन्हों ने हमें आज ही जाने के लिए इसरार किया है। हम सब लोग मुगलसराय से साथ ही इलाहाबाद चलेंगे। उनका तार मुझे घर से निकलते ही मिला। इसी से मैं झट नहा-धोकर लौट आया। बस अब करना ही क्याघ है! कपड़ा-वपड़ा जो कुछ हो बाँध-बूँधकर, घण्टेौ भर में खा-पीकर चली चलो। जब हम तुम्हें विदा कराने आए ही हैं तब कल के बदले आज ही सही।"
"हाँ, यह बात है! नवल जो चाहें करावें। क्या एक ही गाड़ी में न जाने से दोस्ती में बट्टा लग जाएगा? अब तो किसी तरह रुकोगे नहीं, जरूर ही उनके साथ जाओगे। पर मेरे तो नाकों दम आ जाएगी।"
"क्योंी? किस बात से?"
"उनकी हँसी से और किससे! हँसी-ठट्ठा भी राह में अच्छीे लगती है। उनकी हँसी मुझे नहीं भाती। एक रोज मैं चौक में बैठी पूड़ियाँ काढ़ रही थी, कि इतने में न-जाने कहाँ से आकर नवल चिल्लाुने लगे, "ए बुआ! ए बुआ! देखो तुम्हाररी बहू पूड़ियाँ खा रही है।" मैं तो मारे सरम के मर गई। हाँ, भाभी जी ने बात उड़ा दी सही। वे बोलीं, "खाने-पहनने के लिए तो आयी ही है।" पर मुझे उनकी हँसी बहुत बुरी लगी।"
"बस इसी से तुम उनके साथ नहीं जाना चाहतीं? अच्छात चलो, मैं नवल से कह दूँगा कि यह बेचारी कभी रोटी तक तो खाती ही नहीं, पूड़ी क्योंन खाने लगी।"
इतना कहकर बंशीधर कोठरी के बाहर चले आये और बोले, "मैं तुम्हा रे भैया के पास जाता हूँ। तुम रो-रुलाकर तैयार हो जाना।"
इतना सुनते ही जानकी देई की आँखें भर आयीं। और असाढ़-सावन की ऐसी झड़ी लग गयी।
बंशीधर इलाहाबाद के रहने वाले हैं। बनारस में ससुराल है। स्त्री को विदा कराने आये हैं। ससुराल में एक साले, साली और सास के सिवा और कोई नहीं है। नवलकिशोर इनके दूर के नाते में ममेरे भाई हैं। पर दोनों में मित्रता का खयाल अधिक है। दोनों में गहरी मित्रता है, दोनों एक जान दो कालिब हैं।
उसी दिन बंशीधर का जाना स्थिर हो गया। सीता, बहन के संग जाने के लिए रोने लगी। माँ रोती-धोती लड़की की विदा की सामग्री इकट्ठी करने लगी। जानकी देई भी रोती ही रोती तैयार होने लगी। कोई चीज भूलने पर धीमी आवाज से माँ को याद भी दिलाती गयी। एक बजने पर स्टेीशन जाने का समय आया। अब गाड़ी या इक्का लाने कौन जाय? ससुरालवालों की अवस्थास अब आगे की सी नहीं कि दो-चार नौकर-चाकर हर समय बने रहें। सीता के बाप के न रहने से काम बिगड़ गया है। पैसेवाले के यहाँ नौकर-चाकरों के सिवा और भी दो-चार खुशामदी घेरे रहते हैं। छूछे को कौन पूछे? एक कहारिन है; सो भी इस समय कहीं गयी है। सालेराम की तबीयत अच्छीह नहीं। वे हर घड़ी बिछौने से बातें करते हैं। तिस पर भी आप कहने लगे, "मैं ही धीरे-धीरे जाकर कोई सवारी ले आता हूँ, नजदीक तो है।"
बंशीधर बोले, "नहीं, नहीं, तुम क्योंी तकलीफ करोगे? मैं ही जाता हूँ।" जाते-जाते बंशीधर विचारने लगे कि इक्कें की सवारी तो भले घर की स्त्रियों के बैठने लायक नहीं होती, क्योंँकि एक तो इतने ऊँचे पर चढ़ना पड़ता है; दूसरे पराये पुरुष के संग एक साथ बैठना पड़ता है। मैं एक पालकी गाड़ी ही कर लूँ। उसमें सब तरह का आराम रहता है। पर जब गाड़ी वाले ने डेढ़ रुपया किराया माँगा, तब बंशीधर ने कहा, "चलो इक्का ही सही। पहुँचने से काम। कुछ नवलकिशोर तो यहाँ से साथ हैं नहीं, इलाहाबाद में देखा जाएगा।"
बंशीधर इक्का ले आये, और जो कुछ असबाब था, इक्केा पर रखकर आप भी बैठ गये। जानकी देई बड़ी विकलता से रोती हुई इक्के पर जा बैठी। पर इस अस्थिर संसार में स्थिरता कहाँ! यहाँ कुछ भी स्थिर नहीं। इक्कात जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया वैसे जानकी की रुलाई भी कम होती गयी। सिकरौल के स्टेरशन के पास पहुँचते-पहुँचते जानकी अपनी आँखें अच्छीक तरह पोंछ चुकी थी।
दोनों चुपचाप चले जा रहे थे कि, अचानक बंशीधर की नजर अपनी धोती पर पड़ी; और 'अरे एक बात तो हम भूल ही गये।' कहकर पछता से उठे। इक्केर वाले के कान बचाकर जानकी जी ने पूछा, "क्याए हुआ? क्या' कोई जरूरी चीज भूल आये?"
"नहीं, एक देशी धोती पहिनकर आना था; सो भूलकर विलायती ही पहिन आये। नवल कट्टर स्वेदेशी हुए हैं न! वे बंगालियों से भी बढ़ गये हैं। देखेंगे तो दो-चार सुनाये बिना न रहेंगे। और, बात भी ठीक है। नाहक बिलायती चीजें मोल लेकर क्योंे रुपये की बरबादी की जाय। देशी लेने से भी दाम लगेगा सही; पर रहेगा तो देश ही में।"
जानकी जरा भौंहें टेढ़ी करके बोली, "ऊँह, धोती तो धोती, पहिनने से काम। क्यार यह बुरी है?"
इतने में स्टेहशन के कुलियों ने आ घेरा। बंशीधर एक कुली करके चले। इतने में इक्केिवाले ने कहा, "इधर से टिकट लेते जाइए। पुल के उस पार तो ड्योढ़े दरजे का टिकट मिलता है।"
बंशीधर फिरकर बोले, "अगर मैं ड्योढ़े दरजे का ही टिकट लूँ तो?"
इक्केरवाला चुप हो रहा। "इक्केर की सवारी देखकर इसने ऐसा कहा," यह कहते हुए बंशीधर आगे बढ़ गये। यथा-समय रेल पर बैठकर बंशीधर राजघाट पार करके मुगलसराय पहुँचे। वहाँ पुल लाँघकर दूसरे प्ले टफार्म पर जा बैठे। आप नवल से मिलने की खुशी में प्लेपटफार्म के इस छोर से उस छोर तक टहलते रहे। देखते-देखते गाड़ी का धुआँ दिखलाई पड़ा। मुसाफिर अपनी-अपनी गठरी सँभालने लगे। रेल देवी भी अपनी चाल धीमी करती हुई गम्भीुरता से आ खड़ी हुई। बंशीधर एक बार चलती गाड़ी ही में शुरू से आखिर तक देख गये, पर नवल का कहीं पता नहीं। बंशीधर फिर सब गाड़ियों को दोहरा गये, तेहरा गये, भीतर घुस-घुसकर एक-एक डिब्बेि को देखा किंतु नवल न मिले। अंत को आप खिजला उठे, और सोचने लगे कि मुझे तो वैसी चिट्ठी लिखी, और आप न आया। मुझे अच्छाे उल्लू बनाया। अच्छां जाएँगे कहाँ? भेट होने पर समझ लूँगा। सबसे अधिक सोच तो इस बात का था कि जानकी सुनेगी तो ताने पर ताना मारेगी। पर अब सोचने का समय नहीं। रेल की बात ठहरी, बंशीधर झट गये और जानकी को लाकर जनानी गाड़ी में बिठाया। वह पूछने लगी, "नवल की बहू कहाँ है?" "वह नहीं आये, कोई अटकाव हो गया," कहकर आप बगल वाले कमरे में जा बैठे। टिकट तो ड्योढ़े का था; पर ड्योढ़े दरजे का कमरा कलकत्ते से आनेवाले मुसाफिरों से भरा था, इसलिए तीसरे दरजे में बैठना पड़ा। जिस गाड़ी में बंशीधर बैठे थे उसके सब कमरों में मिलाकर कल दस-बारह ही स्त्रीज-पुरुष थे। समय पर गाड़ी छूटी। नवल की बातें, और न-जाने क्या अगड़-बगड़ सोचते गाड़ी कई स्टेयशन पार करके मिरजापुर पहुँची।"
मिरजापुर में पेटराम की शिकायत शुरू हुई। उसने सुझाया कि इलाहाबाद पहुँचने में अभी देरी है। चलने के झंझट में अच्छी तरह उसकी पूजा किये बिना ही बंशीधर ने बनारस छोड़ा था। इसलिए आप झट प्लेझटफार्म पर उतरे, और पानी के बम्बेश से हाथ-मुँह धोकर, एक खोंचेवाले से थोड़ी-सी ताजी पूड़ियाँ और मिठाई लेकर, निराले में बैठ आपने उन्हेंध ठिकाने पहुँचाया। पीछे से जानकी की सुध आयी। सोचा कि पहले पूछ लें, तब कुछ मोल लेंगे, क्योंनकि स्त्रि याँ नटखट होती हैं। वे रेल पर खाना पसंद नहीं करतीं। पूछने पर वही बात हुई। तब बंशीधर लौटकर अपने कमरे में आ बैठे। यदि वे चाहते तो इस समय ड्योढ़े में बैठ जाते; क्योंौकि अब भीड़ कम हो गयी थी। पर उन्होंोने कहा, थोड़ी देर के लिए कौन बखेड़ा करे।
बंशीधर अपने कमरे में बैठे तो दो-एक मुसाफिर अधिक देख पड़े। आगेवालों में से एक उतर भी गया था। जो लोग थे सब तीसरे दरजे के योग्यश जान पड़ते थे; अधिक सभ्यउ कोई थे तो बंशीधर ही थे। उनके कमरे के पास वाले कमरे में एक भले घर की स्त्रीज बैठी थी। वह बेचारी सिर से पैर तक ओढ़े, सिर झुकाए एक हाथ लंबा घूँघट काढ़े, कपड़े की गठरी-सी बनी बैठी थी, बंशीधर ने सोचा इनके संग वाले भद्र पुरुष के आने पर उनके साथ बातचीत करके समय बितावेंगे। एक-दो करके तीसरी घण्टीन बजी। तब वह स्त्री कुछ अकचकाकर, थोड़ा-सा मुँह खोल, जँगले के बाहर देखने लगी। ज्योंगही गाड़ी छूटी, वह मानो काँप-सी उठी। रेल का देना-लेना तो हो ही गया था। अब उसको किसी की क्याी परवा? वह अपनी स्वावभाविक गति से चलने लगी। प्लेनटफार्म पर भीड़ भी न थी। केवल दो-चार आदमी रेल की अंतिम विदाई तक खड़े थे। जब तक स्टेेशन दिखलाई दिया तब तक वह बेचारी बाहर ही देखती रही। फिर अस्पईष्टे स्वेर से रोने लगी। उस कमरे में तीन-चार प्रौढ़ा ग्रामीण स्त्रिेयाँ भी थीं। एक, जो उसके पास ही थी, कहने लगी - "अरे इनकर मनई तो नाहीं आइलेन। हो देखहो, रोवल करथईन।"
दूसरी, “अरे दूसर गाड़ी में बैठा होंइहें।”
पहली, “दुर बौरही! ई जनानी गाड़ी थेड़े है।”
दूसरी, “तऊ हो भलू तो कहू।” कहकर दूसरी भद्र महिला से पूछने लगी, “कौन गाँव उतरबू बेटा! मीरजैपुरा चढ़ी हऊ न?" इसके जवाब में उसने जो कहा सो वह न सुन सकी।
तब पहली बोली, "हट हम पुँछिला न; हम कहा काहाँ ऊतरबू हो? आँय ईलाहाबास?"
दूसरी, “ईलाहाबास कौन गाँव हौ गोइयाँ?”
पहली, “अरे नाहीं जनँलू? पैयाग जी, जहाँ मनई मकर नाहाए जाला।”
दूसरी, “भला पैयाग जी काहे न जानीथ; ले कहैके नाहीं, तोहरे पंच के धरम से चार दाँई नहाय चुकी हँई। ऐसों हो सोमवारी, अउर गहन, दका, दका, लाग रहा तउन तोहरे काशी जी नाहाय गइ रहे।”
पहली, “आवे जाय के तो सब अऊते जाता बटले बाटेन। फुन यह साइत तो बिचारो विपत में न पड़ल बाटिली। हे हम पंचा हइ; राजघाट टिकस कटऊली; मोंगल के सरायैं उतरलीह; हो द पुन चढ़लीह।”
दूसरी, “ऐसे एक दाँई हम आवत रहे। एक मिली औरो मोरे संघे रही। दकौने टिसनीया पर उकर मलिकवा उतरे से कि जुरतँइहैं गड़िया खुली। अब भइया ऊगरा फाड़-फाड़ नरियाय, ए साहब, गड़िया खड़ी कर! ए साहेब, गड़िया तँनी खड़ी कर! भला गड़ियादहिनाती काहै के खड़ी होय?”
पहली, “उ मेहररुवा बड़ी उजबक रहल। भला केहू के चिल्ला!ये से रेलीऔ कहूँ खड़ी होला?”
इसकी इस बात पर कुल कमरे वाले हँस पड़े। अब जितने पुरुष-स्त्रियाँ थीं, एक से एक अनोखी बातें कहकर अपने-अपने तजरुबे बयान करने लगीं। बीचबीच में उस अकेली अबला की स्थिति पर भी दु:ख प्रकट करती जाती थीं।
तीसरी स्त्री बोली, "टीक्ककसिया पल्लेम बाय क नाँही। हे सहेबवा सुनि तो कलकत्ते ताँई ले मसुलिया लेई। अरे-इहो तो नाँही कि दूर से आवत रहले न, फरागत के बदे उतर लेन।"
चौथी, “हम तो इनके संगे के आदमी के देखबो न किहो गोइयाँ।”
तीसरी, “हम देखे रहली हो, मजेक टोपी दिहले रहलेन को।”
इस तरह उनकी बेसिर-पैर की बातें सुनते-सुनते बंशीधर ऊब उठे। तब वे उन स्त्रियों से कहने लगे, "तुम तो नाहक उन्हें और भी डरा रही हो। जरूर इलाहाबाद तार गया होगा और दूसरी गाड़ी से वे भी वहाँ पहुँच जाएँगे। मैं भी इलाहाबाद ही जा रहा हूँ। मेरे संग भी स्त्रियाँ हैं। जो ऐसा ही है तो दूसरी गाड़ी के आने तक मैं स्टेीशन ही पर ठहरा रहूँगा, तुम लोगों में से यदि कोई प्रयाग उतरे तो थोड़ी देर के लिए स्टेेशन पर ठहर जाना। इनको अकेला छोड़ देना उचित नहीं। यदि पता मालूम हो जाएगा तो मैं इन्हेंे इनके ठहरने के स्था न पर भी पहुँचा दूँगा।"
बंशीधर की इन बातों से उन स्त्रियों की वाक्-धारा दूसरी ओर बह चली, "हाँ, यह बात तो आप भली कही।" "नाहीं भइया! हम पंचे काहिके केहुसे कुछ कही। अरे एक के एक करत न बाय तो दुनिया चलत कैसे बाय?" इत्यारदि ज्ञानगाथा होने लगी। कोई-कोई तो उस बेचारी को सहारा मिलते देख खुश हुए और कोई-कोई नाराज भी हुए, क्योंन, सो मैं नहीं बतला सकती। उस गाड़ी में जितने मनुष्यी थे, सभी ने इस विषय में कुछ-न-कुछ कह डाला था। पिछले कमरे में केवल एक स्त्री जो फरासीसी छींट की दुलाई ओढ़े अकेली बैठी थी, कुछ नहीं बोली। कभी-कभी घूँघट के भीतर से एक आँख निकालकर बंशीधर की ओर वह ताक देती थी और, सामना हो जाने पर, फिर मुँह फेर लेती थी। बंशीधर सोचने लगे कि, "यह क्या बात है? देखने में तो यह भले घर की मालूम होती है, पर आचरण इसका अच्छा नहीं।"
गाड़ी इलाहाबाद के पास पहुँचने को हुई। बंशीधर उस स्त्रीख को धीरज दिलाकर आकाश-पाताल सोचने लगे। यदि तार में कोई खबर न आयी होगी तो दूसरी गाड़ी तक स्टेमशन पर ही ठहरना पड़ेगा। और जो उससे भी कोई न आया तो क्याय करूँगा? जो हो गाड़ी नैनी से छूट गयी। अब साथ की उन अशिक्षिता स्त्रियों ने फिर मुँह खोला, "क भइया, जो केहु बिना टिक्कबस के आवत होय तो ओकर का सजाय होला? अरे ओंका ई नाहीं चाहत रहा कि मेहरारू के तो बैठा दिहलेन, अउर अपुआ तउन टिक्कहस लेई के चल दिहलेन!" किसी-किसी आदमी ने तो यहाँ तक दौड़ मारी की रात को बंशीधर इसके जेवर छीनकर रफूचक्कलर हो जाएँगे। उस गाड़ी में एक लाठीवाला भी था, उसने खुल्लोमखुल्लाज कहा, "का बाबू जी! कुछ हमरो साझा!"
इसकी बात पर बंशीधर क्रोध से लाल हो गये। उन्होंरने इसे खूब धमकाया। उस समय तो वह चुप हो गया, पर यदि इलाहाबाद उतरता तो बंशीधर से बदला लिये बिना न रहता। बंशीधर इलाहाबाद में उतरे। एक बुढ़िया को भी वहीं उतरना था। उससे उन्होंाने कहा कि, "उनको भी अपने संग उतार लो।" फिर उस बुढ़िया को उस स्त्री के पास बिठाकर आप जानकी को उतारने गये। जानकी से सब हाल कहने पर वह बोली, "अरे जाने भी दो; किस बखेड़े में पड़े हो।" पर बंशीधर ने न माना। जानकी को और उस भद्र महिला को एक ठिकाने बिठाकर आप स्टे शन मास्ट र के पास गये। बंशीधर के जाते ही वह बुढ़िया, जिसे उन्होंने रखवाली के लिए रख छोड़ा था, किसी बहाने से भाग गयी। अब तो बंशीधर बड़े असमंजस में पड़े। टिकट के लिए बखेड़ा होगा। क्योंकि वह स्त्री बे-टिकट है। लौटकर आये तो किसी को न पाया। "अरे ये सब कहाँ गयीं?" यह कहकर चारों तरफ देखने लगे। कहीं पता नहीं। इस पर बंशीधर घबराये, "आज कैसी बुरी साइत में घर से निकले कि एक के बाद दूसरी आफत में फँसते चले आ रहे हैं।" इतने में अपने सामने उस ढुलाईवाली को आते देखा। "तू ही उन स्त्रियों को कहीं ले गयी है,” इतना कहना था कि ढुलाई से मुँह खोलकर नवलकिशोर खिलखिला उठे।
"अरे यह क्याे? सब तुम्हा री ही करतूत है! अब मैं समझ गया। कैसा गजब तुमने किया है? ऐसी हँसी मुझे नहीं अच्छीे लगती। मालूम होता कि वह तुम्हाहरी ही बहू थी। अच्छाब तो वे गयीं कहाँ?"
"वे लोग तो पालकी गाड़ी में बैठी हैं। तुम भी चलो।"
"नहीं मैं सब हाल सुन लूँगा तब चलूँगा। हाँ, यह तो कहे, तुम मिरजापुर में कहाँ से आ निकले?"
"मिरजापुर नहीं, मैं तो कलकत्ते से, बल्कि मुगलसराय से, तुम्हाेरे साथ चला आ रहा हूँ। तुम जब मुगलसराय में मेरे लिए चक्कँर लगाते थे तब मैं ड्योढ़े दर्जे में ऊपरवाले बेंच पर लेटे तुम्हाचरा तमाशा देख रहा था। फिर मिरजापुर में जब तुम पेट के धंधे में लगे थे, मैं तुम्हाारे पास से निकल गया पर तुमने न देखा, मैं तुम्हामरी गाड़ी में जा बैठा। सोचा कि तुम्हामरे आने पर प्रकट होऊँगा। फिर थोड़ा और देख लें, करते-करते यहाँ तक नौबत पहुँची। अच्छा अब चलो, जो हुआा उसे माफ करो।"
यह सुन बंशीधर प्रसन्नर हो गये। दोनों मित्रों में बड़े प्रेम से बातचीत होने लगी। बंशीधर बोले, "मेरे ऊपर जो कुछ बीती सो बीती, पर वह बेचारी, जो तुम्हा रे-से गुनवान के संग पहली ही बार रेल से आ रही थी, बहुत तंग हुई, उसे तो तुमने नाहक रूलाया। बहुत ही डर गयी थी।"
"नहीं जी! डर किस बात का था? हम-तुम, दोनों गाड़ी में न थे?"
"हाँ पर, यदि मैं स्टेाशन मास्टनर से इत्तिला कर देता तो बखेड़ा खड़ा हो जाता न?"
"अरे तो क्या , मैं मर थोड़े ही गया था! चार हाथ की दुलाई की बिसात ही कितनी?"
इसी तरह बातचीत करते-करते दोनों गाड़ी के पास आये। देखा तो दोनों मित्र-बधुओं में खूब हँसी हो रही है। जानकी कह रही थी - "अरे तुम क्याआ जानो, इन लोगों की हँसी ऐसी ही होती है। हँसी में किसी के प्राण भी निकल जाएँ तो भी इन्हेंग दया न आवे।"
खैर, दोनों मित्र अपनी-अपनी घरवाली को लेकर राजी-खुशी घर पहुँचे और मुझे भी उनकी यह राम-कहानी लिखने से छुट्टी मिली।

पण्डित और पण्डितानी

गिरिजादत्‍त बाजपेयी 

पंडित जी की अवस्‍था करीब पैंतालीस वर्ष की है और उनकी पत्‍नी की बीस वर्ष की। पंडित जी अँग्रेजी और संस्‍कृत दोनों में विद्वान हैं और कई पुस्‍तकें लिख चुके हैं। सप्‍ताह में दो-एक दिन उन्‍होंने समाचार पत्र और मासिक पुस्‍तकों के लिए लेख लिखने को नियत कर लिया है, विशेषकर इन्‍हीं दिनों में, अर्थात् जब वे कुछ लिखते होते हैं, तब उनकी युवा पत्‍नी उनको बातचीत में लगाना चाहती हैं। पंडितानी स्‍वरूपवती हैं और कुछ पढ़ी-लिखी भी हैं। उमर में बहुत कम हैं ही। इन सब कारणों से वाद-विवाद में पंडित जी उनसे हार मानना ही अकसर उचित समझते हैं। एक दिन का हाल सुनिए।
कमरे में एक कोने में, जहाँ मेज-कुर्सी लगी हुई थी, पण्डित जी बैठे हुए एक विश्‍व- विख्‍यात कवि के कविता चातुर्य पर कुछ लिख रहे थे। थोड़ी ही दूर पर पंडितानी भी बैठी हुई एक समाचार पत्र पढ़ रही थीं। कुछ देर सन्‍नाटे के बाद पंडितानी अपने पति का ध्‍यान अपनी ओर खींचने के लिए जरा खाँसीं। पण्डित जी ने इसकी कुछ परवाह न की और अपने काम में वे लगे रहे।
"सुना! सुना! ! "
पंडित जी ने पहिले 'सुना !' को तो टाल दिया, परंतु बहरे तो थे ही नही; दूसरे पर उन्‍हें बोलना ही पड़ा।
"हाँ! आज्ञा।"
"क्‍या कुछ बड़े जरूरी काम में हो?"
"नहीं-नहीं, कुछ नहीं" करते हुए पंडित जी ने कहा, "हमको केवल पचास पन्‍ने का एक लेख लिखकर आज ही रात को भेजना है, लेकिन हम यह कुछ बहुत नहीं समझते; कहो तुम्‍हें क्‍या कहना है।"
"इस पत्र में एक बड़े अच्‍छे तोते का विज्ञापन है। यह तुम्‍हे मालूम ही है कि तोता पालने की बहुत दिनों से मेरी इच्‍छा है। अगर मैं यह विज्ञापन काटकर तुम्‍हें दे दूँ, तो तुम कर्नेलगंज में, बोस कंपनी की दुकान पर उसे देख आओगे?" पंडित जी ने कलम तो रख दी और जरा जोर से साँस खींचकर बोले, "प्रिये ! क्‍या सचमुच ही तोता पालने का तुम्‍हारा इरादा है?"
"क्‍यों नहीं; और लोगों के पास भी तो तोते हैं। और यह तोता, जिसका मैं जि़कर करती हूँ, बोल सकता है। जब तुम बाहर होगे, वह मेरे लिए एक साथी होगा।"
"हाँ, यह तो ठीक है ! मुझे विश्‍वास है कि मेरे न होने पर तुम तोते के साथ जी बहला सकती हो, परंतु वह तोता मेरे लिए किस काम का होगा, यह भी तुमने सोचा?"
"वह तुम्‍हें भी प्रसन्‍न करेगा; नए-नए खयाल तुम उससे सीख सकोगे ! "
"जरूर ! मगर जब नए-नए खयाल मेरे ध्‍यान में न आवेंगे तब मैं उनके लिए बोलते हुए तोते के पास नहीं जाने का।"
इतना कहकर पंडित जी फिर लिखने में लग गए। भौंह चढ़ाकर उन्‍होंने अपने ध्‍यान को कालिदास की ओर खींचना चाहा। पंडित जी ने 'कालिदास को काव्‍यरस का मानो' - यह वाक्‍य लिखकर सन्‍नाटे में आगे लिखा - "तोता समझना चाहिए।" ध्‍यान तो प्रिया के तोते की ओर था। इस कारण पंडित जी 'सोता' की जगह 'तोता' लिख गए ! दुबारा पढ़ने पर यह गलती मालूम हुई; तब उन्‍होंने झुँझलाकर उसे काट दिया और पत्‍नी से आप बोले -
"जब मैं काम में हुआ करूँ तब तुम कृपा करके मुझसे मत बोला करो। तुमने मेरे विचारों का प्रवाह बंद कर दिया है।"
पंडितानी, "हाँ ! हम तुमसे कुछ भी बोलीं और तुम्‍हारे विचारों का प्रवाह बंद हुआ। मगर वह प्रवाह ही कैसा जिसे तोता बंद कर दे ! मैं तो उसे टपकना भी नहीं कहने की। मगर अब मैं तुमसे कभी न बोलूँगी; और अपनी शेष जिंदगी चुपचाप रहकर काटूँगी। अगर तुम ब्‍याह के समय यह मुझसे कह देते कि मैं तुमको केवल देख सकूँगी; मगर तुमसे बोल न सकूँगी; तो मुझको यह तो मालूम रहता कि किस बात की तुमसे आशा रख सकती हूँ और किसकी नहीं। ओह, मैं मानो किसी काठ के पुतले को ब्‍याही गई! "
यह सुनकर पंडित जी मुस्‍कुराए और बोले, "यह जवाब तो कुछ बुरा नहीं। इसमें तो तुमने खूब कविता छाँटी।"
"यदि तुम इतने चिरचिरे ने होते तो मैं तुम्‍हें ऐसी ही बातें सुनाया करती। उन्‍हें तुम अपने लेखों में शामिल कर लिया करते और वे तुम्‍हारे लेखों की शोभा बढ़ातीं। परंतु मुझे तो घण्‍टों चुपचाप बैठा रहना पड़ता है। जैसे मैं किसी काल कोठरी की कैदी हूँ, जिसे अपनी परछाँही से भी बातचीत करना मना हो।"
"प्राणाधिके ! मैं तुम्‍हें बोलने से केवल उस समय रोकता हूँ जब मैं किसी काम में लगा होता हूँ। भला तुम्‍हीं सोचो कि काम और बातचीत दोनों, साथ ही कैसे हो सकते हैं ?"
"वाह ! मैं तो उस समय भी काम कर सकती हूँ जब घर भर बातचीत करते हो; बीसियों आदमी बोलते हों। देखो न, मेरे साथ की सात-आठ सहेलियाँ बातचीत करती जाती थीं, जब मैंने तुम्‍हारे लिए वह मखमली जूती तैयार की। तुम्‍हीं कहो वह कैसी अच्‍छी है।"
पंडित जी हँसकर - "हम तुम्‍हारे ऐसे बुद्धिमान नहीं।"
"इसीलिए तो मैं तोता पालना चाहती हूँ कि जब तुम मुझसे न बोल सको और मुझसे भी चुपचाप बैठे न रहा जाय, तब मैं तोते से बोल सकूँ और तोता मुझसे बोल सके; और मुझे यह शंका न होने लगे कि मैं गूँगी या बहरी होती जाती हूँ, जैसा कि अब कभी-कभी होता है।" "मैं कहे देता हूँ" - पंडित जी ने कुछ क्रोधित होकर कहा, "कि अब मैं कदापि और जीव घर में न लाने दूँगा। तुम्‍हारे पास एक कुत्ता है, एक बिल्‍ली है, रंगीन मछलियाँ हैं, और कितने ही लाल हैं। इतने जानवर, किसी स्‍त्री के लिए जो नूह की नौका * में न पली हो, बस हैं।"
पंडितानी ने बड़े मधुर स्‍वर से कहा, "देखो, इस मामले में बाइबिल को न घसीटो।"
पंडितजी ने अपने लेख को निराशा की निगाह से देखा और पंडितानी की ओर प्‍यार से देखकर वे बोले, "प्रिये, तनिक तो बुद्धि से काम लो। यह कम्‍बख्‍़त तोता तुम्‍हारे सिर में कैसे घुसा?"
"मेरे घर में भी एक तोता था। फिर, जब मैं ऐसे घर से आयी, जहाँ सदा तोता रहा, तो बिना उसके मुझसे कैसे रहा जाय?"
"जिसका ब्‍याह हो गया हो, उसके लिए तोता अच्‍छा साथी नहीं।"
"क्‍या खूब! बापू तोते को बहुत प्‍यार करते थे।"
"तुम्‍हारे बापू को शाम को अखबारों के लिए लेख न लिखने पड़ते होंगे।"
"नहीं। वे अपना काम दिन ही को खतम कर डालते थे, और सायंकाल भले आदमियों की तरह अपने बाल-बच्‍चों के साथ बिताते थे। मुझे इस प्रकार, कुल रात बापू की ओर घूरते हुए न बैठे रहना पड़ता था। एक शब्‍द तक मुँह से निकलने का मुझे कष्‍ट न था। हम लोग बहुत मज़े में मिलजुल कर रहते थे - हम, और बापू और तोता।"
इतना कहकर पंडितानी ने अपनी सूरत रोती-सी बनाई, जिससे पंडित जी आतुर होकर बोले -
"देखो, आँसू न निकालो। तुम अच्‍छी तरह रहो कि जो तुम इस मकान के नींव की ईंटें तक माँगो तो वे भी मैं तुम्‍हें देने को तैयार हूँ।"
"मैं ईंटें नहीं माँगती; तोता माँगती हूँ।" पंडित जी को रोककर वह फिर बोली, "तुम मेरे लिए तोता जरूर ला दो ; मैं देखती रहूँगी कि वह तुम्‍हें दिक न करे।"
"परंतु वह दिक करेगा ही। देखो तुमने लाल पाले हैं; वे मुझे कितना दिक करते हैं।"
"वे बिचारे प्‍यारे-प्‍यारे लाल, कैसी मधुरी बानी बोलते हैं। क्‍या उनके गाने से तुम दिक होते हो?"
"प्रिये! उनके गाने से मेरा हर्ज नहीं। परंतु जब कभी पिंजड़े के किवाड़ खुले रह जाते हैं, तब मुझे रखवाली करनी पड़ती है कि कहीं तुम्‍हारी बिल्‍ली उनका नाश्‍ता न कर डाले। कल दो बार मैंने उधर जो देखा तो मालूम हुआ कि पुसी पिंजड़े के पास अपने होठ फड़का रही है। भला तुम्‍हीं कहो, कोई मनुष्‍य अपना ध्‍यान किसी बात में कैसे लगा सकता है यदि उसे एक बिल्‍ली की रखवाली करना पड़े, जो उसकी पत्‍नी के लालों की ताक में हो।"
"परंतु, तुम्‍हें तोते को न ताकना पड़ेगा। तुम जानते हो कि बिल्लियाँ तोते को नहीं खातीं। और जब तुम काम में न होगे, तब उसकी बोली सुनकर प्रसन्‍न होगे। मैं उसको बड़ी अच्‍छी-अच्‍छी बोलियाँ सिखाऊँगी।"
"जो कुछ तुम उसे सिखाओगी वह नहीं बोलेगा; बल्कि वह वही बोलेगा जो वह पहिले ही से जानता है।"
"नहीं! नहीं! मुझे विश्‍वास है कि इस तोते की शिक्षा बुरी नहीं हुई है। विज्ञापन में लिखा है कि वह बच्‍चों से मिल गया है। इसके यह मानी हैं, कि वह गाली गुफ्ता नहीं बकता। मेरे घर का तोता पूरा भला मानस था। उससे मेरे घर के आदमियों पर बड़ा अच्‍छा असर पड़ा। मेरा भाई तोते के आने से पहले तो कभी गाली, वगैरह तक भी देता था; परंतु जब से तोता आया, तब से उसने कभी वैसा नहीं किया। उसको भय था कि कहीं तोता भी न वही बोलने लगे। मुझे बहुधा खयाल हुआ है कि बोलने वाले तोते के होने से शायद तुम्‍हारी भी कुछ आदतें सुधर जाए !"
"अपना यह खयाल तो तुम एकदम दूर कर दो। घर में तोते की मौजूदगी मुझे आपे से बाहर कर देगी। जब वह चीखने लगेगा तब न जाने मैं क्‍या-क्‍या बक जाऊँगा। इसके सिवा मेरे इज्‍जतदार, भलेमानस, और सीधे-सादे पड़ोसियों को एक चीखते हुए तोते से बड़ी परेशानी होगी।"
"हाँ! हाँ! तुम पड़ोसियों का खयाल कर रहे हो? तुम्‍हें इस बात का खयाल नहीं कि मुझे कितना दु:ख है। तुम्‍हारा सब ध्‍यान गैरों की तरफ है ! अच्‍छा कल मैं अपने मकान के सामने वाली हवेली में कहला भेजूँगी कि वे कुत्ता न पालें क्‍योंकि वह घण्‍टों दरवाजे पर भौंका करता है। अगर मैं तोता न पाल सकूँगी तो वे कुत्ता भी न पाल सकेंगे। और, हाँ पड़ोस में अभी एक बच्‍चा हुआ है। वह करीब-करीब रात भर चिल्‍लाता रहता है। मैं उसके लिए भी वैसा ही कहला भेजूँगी। अगर मैं उनके कारण तोता न रख सकूँगी तो वे मेरे कारण बच्‍चा भी न रखने पावेंगे!" इतने पर पंडित जी ने कालिदास और उनके काव्‍य को हटाया और कुर्सी फेरकर वे अपनी अर्धांगिनी के सम्‍मुख हुए।
"प्रियतमे! यदि तुम बुद्धिमानी से बात करो तो मैं तुम्‍हारी बात सुनूँगा, वरना नहीं। भला पड़ोसी के बच्‍चे और तुम्‍हारे तोते से क्‍या संबंध?"
"संबंध क्‍यों नहीं ! खूब संबंध है। अगर मेरे कोई बच्‍चा हो, और वह रोए तो तुम कहोगे कि तुम्‍हारा ध्‍यान बँटता है। इसलिए दाई को उसे लेकर छत पर या बाहर बाजार में बैठना पड़ेगा, जिसमें उसका रोना तुम्‍हें न सुनाई दे। तुम्‍हारे लिए तो केवल एक स्‍थान अच्‍छा होगा। तुम एक कमरा किसी गूँगे-बहिरों के अस्‍पताल में ले लो, तो तुम बिना किसी विघ्‍न के लिख-पढ़ सकोगे। मैं कहती हूँ कि आखिर और लोग कैसे किताबें लिखते हैं? तुम्‍हें कालिदास के बारे में दो सतरें लिखना है; और उतने के लिए अपनी पत्‍नी को सभ्‍यतापूर्वक जवाब देना तुम्‍हें कठिन हो गया है!"
"प्रिये! जवाब तो मैं दे चुका। क्‍या मैंने यह नहीं कहा कि मैं तोता रखने के विरुद्ध हूँ?"
"हाँ! परंतु तुमने मुझे समझाने तो नहीं दिया। तुम्‍हारा जो खयाल तोतों के विषय में है, वह सर्वथा गलत है। तुमने जानवरों के अजायबघर के चीखते हुए तोते देखे हैं जो एक शब्‍द भी नहीं उच्‍चारण कर सकते। परंतु एक सिखाया हुआ तोता, एक शिक्षित तोता, एक पालतू तोता, जैसा विज्ञापन में लिखा है कुछ और ही चीज है। मेरे घर में जो तोता है, वह गा सकता है। लोग कोसों से उसके गीत सुनने आते हैं। उसके पिंजड़े के पास भीड़ लग जाती है।"
"अच्‍छा, वह क्‍या गाता है? ऋतुसंहार के श्‍लोक ?"
"देखो ऐसी बे-लगाव बातें मत करो ! ऋतुसंहार के श्‍लोक पढ़ेगा! वह काशी का कोई शास्‍त्री है न ! "
"अच्‍छा फिर, यह बताओ, वह गाता क्‍या है। इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि तुम तोता जरूर पालोगी, चाहे हम मानें या न मानें। अब हमें इतना तो मालूम हो जाय कि क्‍या बक-बककर सुबह, दोपहर और शाम, हर समय वह, हमारे कान फोड़ेगा?"
"उसमें कान फोड़ने की कोई बात नहीं। तुम तो ऐसा कहते हो, गोया मेरे घर के आदमी सब जंगली हैं; गान-विद्या जानते ही नहीं। याद रखिए, उनमें बुद्धि और सभ्‍यता तुमसे कुछ कम नहीं।"
"अच्‍छा, यह सब हमने माना। जरा बताइए तो सही आपका वह सभ्‍य तोता कहता क्‍या है?"
"वह कई बड़े ही मनोहर पद कहता है। नीचे का पद तो वह बड़ी ही सफाई से गाता है, वह कहता है...
सत्त, गुरदत्त, शिवदत्त दाता।"
"आहा ! क्‍या कहना है !" पंडित जी ने कुछ क्रोध और कुछ कटाक्ष से कहा, "मैंने अपने जीवन में इससे अधिक अच्‍छा गाना कभी नहीं सुना। अगर यही गाना है तो मैं इस 'दत्तदत्त' पर 'धत्त' कहता हूँ ! "
"देखो मुझसे धत्त न कहना। कोई मैं कुँजड़िन-कबडि़न नहीं।"
"ख़फा मत हो। मैं तुम्‍हें धत्त नहीं कहता; तुम्‍हारे सभ्‍य तोते को धत्त कहता हूँ। तुमने पूरा एक घण्‍टा समय मेरा नष्‍ट किया। अब कृपा करके लिखने दो।"
किसी प्रकार पंडितजी ने अपना चित्त खींच कर फिर कालिदास पर उसे जमाया ! लेकिन पंडितानी जी से चुपचाप कब रहा जाता है ! थोड़ी ही देर में उस सन्‍नाटे ने उन्‍हें व्‍याकुल कर दिया। अपनी जगह से उठकर वे पंडित जी के पास आईं और अपना हाथ मेज पर कई बार मारकर उन्‍होंने उनका ध्‍यान अपनी ओर आकर्षित किया। वे बोलीं, "अच्‍छा, तो पूछती हूँ कि, अगर मैं एक तोता न पालूँ तो तुम छ: कुत्ते कैसे पालोगे? छ: कुत्ते और उसमें से ऐसा काटनेवाला कि जिसके मारे धोबिन, नाइन, तेलिन-तमोलिन तक का आना मुश्किल ! अहीर जब दूध दुहने आता है तब दो नौकर उस कुत्ते को पकड़ने को चाहिए। यह सब तुम जानते हो ; तब भी उसे नहीं निकालते, अभी उस दिन तुम्‍हें मेहतर को दो रुपए देने पड़े। जिसमें वह उसके काटने की खबर पुलिस को न करे। जनकिया महरी को देख उस दिन वह ऐसा गुर्राया कि वह गिर ही पड़ी! तुम तो ऐसा कुत्ता रखो और यदि मैं छोटा-सा, मिष्‍टभाषी, खूबसूरत, निरुपम तोता पिंजड़े में पालना चाहूँ तो तुम मुझसे ऐसे लड़ो जैसे मैं कोई बाघ घर में लाना चाहती हूँ!!"
पंडित जी से अब आगे कुछ न बन पड़ी। उन्‍होंने पंडितानी के दोनों हाथ अपने हाथों में प्‍यार से लेकर दबाया और उनका मुख एक बार चुंबन करके कहा, "अच्‍छा तो हम तुम्‍हारे लिए एक नहीं, छ: तोते ला देंगे। अब तो प्रसन्‍न हो?"
इस पर पंडितानी जी प्रसन्‍नता से फूलकर चुपचाप बैठ गयीं और पंडितजी ने जल्‍दी-जल्‍दी अपना लेख समाप्‍त कर डाला।
ईसाइयों की धर्मपुस्तक बाइबिल में लिखा है कि जब संसारी जीवों के पातक के कापण आयी हुई भयंकर बाढ़ से बचने के लिए, नूह ने ईश्वर के आज्ञानुसार एक बड़ी किश्ती बनायी और उसमें शरण ली तब उन्होंने अपने बाल बच्चों के अतिरिक्त सब जंतुओं का एक-एक जोड़ा भी साथ लिया।
(पहली बार प्रकाशन : 1903)

ग्‍यारह वर्ष का समय

आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल 

दिन-भर बैठे-बैठे मेरे सिर में पीड़ा उत्प‍न्न हुई : मैं अपने स्थान से उठा और अपने एक नए एकांतवासी मित्र के यहाँ मैंने जाना विचारा। जाकर मैंने देखा तो वे ध्याकन-मग्ने सिर नीचा किए हुए कुछ सोच रहे थे। मुझे देखकर कुछ आश्चवर्य नहीं हुआ; क्योंरकि यह कोई नई बात नहीं थी। उन्हेंउ थोड़े ही दिन पूरब से इस देश मे आए हुआ है। नगर में उनसे मेरे सिवा और किसी से विशेष जान-पहिचान नहीं है; और न वह विशेषत: किसी से मिलते-जुलते ही हैं। केवल मुझसे मेरे भाग्यं से, वे मित्र-भाव रखते हैं। उदास तो वे हर समय रहा करते हैं। कई बेर उनसे मैंने इस उदासीनता का कारण पूछा भी; किंतु मैंने देखा कि उसके प्रकट करने में उन्हेंव एक प्रकार का दु:ख-सा होता है; इसी कारण मैं विशेष पूछताछ नहीं करता।
मैंने पास जाकर कहा, "मित्र! आज तुम बहुत उदास जान पड़ते हो। चलो थोड़ी दूर तक घूम आवें। चित्त बहल जाएगा।“
वे तुरंत खड़े हो गए और कहा, "चलो मित्र, मेरा भी यही जी चाहता है मैं तो तुम्हारे यहाँ जानेवाला था।"
हम दोनों उठे और नगर से पूर्व की ओर का मार्ग लिया। बाग के दोनों ओर की कृषि-सम्पमन्ना भूमि की शोभा का अनुभव करते और हरियाली के विस्तृगत राज्यद का अवलोकन करते हम लोग चले। दिन का अधिकांश अभी शेष था, इससे चित्त को स्थिरता थी। पावस की जरावस्थान थी, इससे ऊपर से भी किसी प्रकार के अत्यााचार की संभावना न थी। प्रस्तुपत ऋतु की प्रशंसा भी हम दोनों बीच-बीच में करते जाते थे।
अहा! ऋतुओं में उदारता का अभिमान यही कर सकता है। दीन कृषकों को अन्नसदान और सूर्यातप-तप्त पृथिवी को वस्त्रतदान देकर यश का भागी यही होता है। इसे तो कवियों की ‘कौंसिल’ से ‘रायबहादुर’ की उपाधि मिलनी चाहिए। यद्यपि पावस की युवावस्था। का समय नहीं है; किंतु उसके यश की ध्वयजा फहरा रही है। स्थामन-स्थासन पर प्रसन्नय-सलिल-पूर्ण ताल यद्यपि उसकी पूर्व उदारता का परिचय दे रहे हैं।
एतादृश भावों की उलझन में पड़कर हम लोगों का ध्यादन मार्ग की शुद्धता की ओर न रहा। हम लोग नगर से बहुत दूर निकल गए। देखा तो शनै:-शनै: भूमि में परिवर्तन लक्षित होने लगा; अरुणता-मिश्रित पहाड़ी, रेतीली भूमि, जंगली बेर-मकोय की छोटी-छोटी कण्ट कमय झाड़ियाँ दृष्टि के अंतर्गत होने लगीं। अब हम लोगों को जान पड़ा कि हम दक्षिण की ओर झुके जा रहे हैं। संध्याो भी हो चली। दिवाकर की डूबती हुई किरणों की अरुण आभा झाड़ियों पर पड़ने लगी। इधर प्राची की ओर दृष्टि गयी; देखा तो चंद्रदेव पहिले ही से सिंहासनारूढ़ होकर एक पहाड़ी के पीछे से झाँक रहे थे।
अब हम लोग नहीं कह सकते कि किस स्थाहन पर हैं। एक पगडण्डी के आश्रय अब तक हम लोग चल रहे थे, जिस पर उगी हुई घास इस बात की शपथ खा के साक्षी दे रही थी कि वर्षों से मनुष्यों के चरण इस ओर नहीं पड़े हैं। कुछ दूर चलकर यह मार्ग भी तृण-सागर में लुप्तष हो गया। ‘इस समय क्याह कर्तव्यप है?’ चित्त इसी के उत्तर की प्रतीक्षा में लगा। अंत में यह विचार स्थिर हुआ कि किसी खुले स्थाणन से चारों ओर देखकर यह ज्ञान प्राप्तक हो सकता है कि हम लोग अमुक स्था न पर हैं।
दैवात् सम्मु‍ख ही ऊँची पहाड़ी देख पड़ी, उसी को इस कार्य के उपयुक्तक स्थाचन हम लोगों ने विचारा। ज्यों्-त्योंच करके पहाड़ी के शिखर तक हम लोग गए। ऊपर आते ही भगवती जन्हूथ-नन्दिनी के दर्शन हुए। नेत्र तो सफल हुए। इतने में चारुहासिनी चंद्रिका भी अट्टहास करके खिल पड़ी। उत्तर-पूर्व की ओर दृष्टि गई। विचित्र दृश्य सम्मुचख उपस्थित हुआ। जाह्नवी के तट से कुछ अंतर पर नीचे मैदान में, बहुत दूर, गिरे हुए मकानों के ढेर स्वआच्छ चंद्रिका में स्पष्ट रूप से दिखाई दिए।
मैं सहसा चौंक पड़ा और ये शब्द मेरे मुख से निकल पड़े, "क्या यह वही खँडहर है जिसके विषय में यहाँ अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं?" चारों ओर दृष्टि उठाकर देखने से पूर्ण रूप से निश्च य हो गया कि हो न हो, यह वही स्था न है जिसके संबंध में मैंने बहुत कुछ सुना है। मेरे मित्र मेरी ओर ताकने लगे। मैंने संक्षेप में उस खँडहर के विषय में जो कुछ सुना था, उनसे कह सुनाया। हम लोगों के चित्त में कौतूहल की उत्पत्ति हुई; उसको निकट से देखने की प्रबल इच्छा ने मार्गज्ञान की व्य ग्रता को हृदय से बहिर्गत कर दिया। उत्तर की ओर उतरना बड़ा दुष्क र प्रतीत हुआ, क्यों कि जंगली वृक्षों और कण्ट्कमय झाड़ियों से पहाड़ी का वह भाग आच्छाखदित था। पूर्व की ओर से हम लोग सुगमतापूर्वक नीचे उतरे। यहाँ से खँडहर लगभग डेढ़ मील प्रतीत होता था। हम लोगों ने पैरों को उसी ओर मोड़ा; मार्ग में घुटनों तक उगी हुई घास पग-पग पर बाधा उपस्थित करने लगी; किंतु अधिक विलम्ब् तक यह कष्टे हम लोगों को भोगना न पड़ा; क्योंतकि आगे चलकर फूटे हुए खपड़ैलों की सिटकियाँ मिलने लगीं; इधर-उधर गिरी हुई दीवारें और मिट्टी के ढूह प्रत्यिक्ष होने लगे। हम लोगों ने जाना कि अब यहीं से खँडहर का आरंभ है। दीवारों की मिट्टी से स्थाेन क्रमश: ऊँचा होता जाता था, जिस पर से होकर हम लोग निर्भय जा रहे थे। इस निर्भयता के लिए हम लोग चंद्रमा के प्रकाश के भी अनुगृहीत हैं। सम्मुगख ही एक देव मंदिर पर दृष्टि जा पड़ी, जिसका कुछ भाग तो नष्टी हो गया था, किंतु शेष प्रस्त र-विनिर्मित होने के कारण अब तक क्रूर काल के आक्रमण को सहन करता आया था। मंदिर का द्वार ज्योंभ-का-त्योंण खड़ा था। किवाड़ सट गए थे। भीतर भगवान् भवानीपति बैठे निर्जन कैलाश का आनंद ले रहे थे, द्वार पर उनका नंदी बैठा था। मैं तो प्रणाम करके वहाँ से हटा, किंतु देखा तो हमारे मित्र बड़े ध्या न से खड़े हो, उस मंदिर की ओर देख रहे हैं और मन-ही-मन कुछ सोच रहे हैं। मैंने मार्ग में भी कई बेर लक्ष्य किया था कि वे कभी-कभी ठिठक जाते और किसी वस्तुभ को बड़ी स्थिर दृष्टि से देखने लगते। मैं खड़ा हो गया और पुकारकर मैंने कहा, "कहो मित्र! क्याो है? क्याे देख रहे हो?"
मेरी बोली सुनते ही वे झट मेरे पास दौड़ आए और कहा, "कुछ नहीं, यों ही मंदिर देखने लग गया था।" मैंने फिर तो कुछ न पूछा, किंतु अपने मित्र के मुख की ओर देखता जाता था, जिस पर कि विस्मिय-युक्तक एक अद्भुत भाव लक्षित होता था। इस समय खँडहर के मध्यज भाग में हम लोग खड़े थे। मेरा हृदय इस स्थाैन को इस अवस्था में देख विदीर्ण होने लगा। प्रत्येमक वस्तु से उदासी बरस रही थी; इस संसार की अनित्यअता की सूचना मिल रही थी। इस करुणोत्पापदक दृश्यक का प्रभाव मेरे हृदय पर किस सीमा तक हुआ, शब्दोंथ द्वारा अनुभव करना असम्भणव है।
कहीं सड़े हुए किवाड़ भूमि पर पड़े प्रचण्ड काल को साष्टां ग दण्ड।वत् कर रहे हैं, जिन घरों में किसी अपरिचित की परछाईं पड़ने से कुल की मर्यादा भंग होती थी, वे भीतर से बाहर तक खुले पड़े हैं। रंग-बिरंगी चूड़ियों के टुकड़े इधर-उधर पड़े काल की महिमा गा रहे हैं। मैंने इनमें से एक को हाथ में उठाया, उठाते ही यह प्रश्नम उपस्थित हुआ कि "वे कोमल हाथ कहाँ हैं जो इन्हेंक धारण करते थे?"
हा! यही स्था न किसी समय नर-नारियों के आमोद-प्रमोद से पूर्ण रहा होगा और बालकों के कल्लो ल की ध्व नि चारों ओर से आती रही होगी, वही आज कराल काल के कठोर दाँतों के तले पिसकर चकनाचूर हो गया है! तृणों से आच्छामदित गिरी हुई दीवारें, मिट्टी और ईंटों के ढूह, टूटे-फूटे चौकठे और किवाड़ इधर-उधर पड़े एक स्वेर से मानो पुकार के कह रहे थे - ‘दिनन को फेर होत, मेरु होत माटी को,’ प्रत्ये क पार्श्व् से मानो यही ध्वहनि आ रही थी। मेरे हृदय में करुणा का एक समुद्र उमड़ा जिसमें मेरे विचार सब मग्नर होने लगे।
मैं एक स्व च्छ‍ शिला पर, जिसका कुछ भाग तो पृथ्वीथतल में धँसा था, और शेषांश बाहर था, बैठ गया। मेरे मित्र भी आकर मेरे पास बैठे। मैं तो बैठे-बैठे काल-चक्र की गति पर विचार करने लगा; मेरे मित्र भी किसी विचार ही में डूबे थे; किंतु मैं नहीं कह सकता कि वह क्याक था। यह सुंदर स्थालन इस शोचनीय और पतित दशा को क्योंेकर प्राप्त हुआ, मेरे चित्त में तो यही प्रश्नस बार-बार उठने लगा; किंतु उसका संतोषदायक उत्तर प्रदान करने वाला वहाँ कौन था? अनुमान ने यथासाध्यय प्रयत्नग किया, परंतु कुछ फल न हुआ। माथा घूमने लगा। न जाने कितने और किस-किस प्रकार के विचार मेरे मस्तिष्कछ से होकर दौड़ गए।
हम लोग अधिक विलम्बस तक इस अवस्थाज में न रहने पाए। यह क्यार? मधुसूदन! यह कौन-सा दृश्यग है? जो कुछ देखा, उससे अवाक् रह गया! कुछ दूर पर एक श्वेरत वस्तुग इसी खँडहर की ओर आती देख पड़ी! मुझे रोमांच हो आया; शरीर काँपने लगा। मैंने अपने मित्र को उस ओर आकर्षित किया और उँगली उठा के दिखाया। परंतु कहीं कुछ न देख पड़ा; मैं स्थानपित मूर्ति की भाँति बैठा रहा। पुन: वही दृश्य ! अबकी बार ज्यो त्नाीर लोक में स्प ष्टभ रूप से हम लोगों ने देखा कि एक श्वेडत परिच्छाद धारिणी स्त्रीउ एक जल-पात्र लिए खँडहर के एक पार्श्वै से होकर दूसरी ओर वेग से निकल गई और उन्हींे खँडहरों के बीच फिर न जाने कहाँ अंतर्धान हो गई। इस अदृष्टरपूर्व व्याकपार को देख मेरे मस्तिष्क में पसीना आ गया और कई प्रकार के भ्रम उत्पान्नस होने लगे। विधाता! तेरी सृष्टि में न-जाने कितनी अद्भुत–अद्भुत वस्तुभ मनुष्यन की सूक्ष्मग विचार-दृष्टि से वंचित पड़ी हैं। यद्यपि मैंने इस स्थावन विशेष के संबंध में अनेक भयानक वार्ताएँ सुन रखी थीं, किंतु मेरे हृदय पर भय का विशेष संचार न हुआ। हम लोगों को प्रेतों पर भी इतना दृढ़ विश्वाीस न था; नहीं तो हम दोनों का एक क्षण भी उस स्थातन पर ठहरना दुष्कपर हो जाता। रात्रि भी अधिक व्यंतीत होती जाती थी। हम दोनों को अब यह चिंता हुई कि यह स्त्री कौन है? इसका उचित परिशोध अवश्यी लगाना चाहिए।
हम दोनों अपने स्थारन से उठे और जिस ओर वह स्त्रीो जाती हुई देख पड़ी थी उसी ओर चले। अपने चारों ओर प्रत्येथक स्थाठन को भली प्रकार देखते, हम लोग गिरे हुए मकानों के भीतर जा-जा के श्रृगालों के स्वओच्छंाद विहार में बाधा डालने लगे। अभी तक तो कुछ ज्ञात न हुआ। यह बात तो हम लोगों के मन में निश्चवय हो गई थी कि हो न हो, वह स्त्री खँडहर के किसी गुप्तम भाग में गई है। गिरी हुई दीवारों की मिट्टी और ईंटों के ढेर से इस समय हम लोग परिवृत्त थे। बाह्य जगत् की कोई वस्तुो दृष्टि के अंतर्गत न थी। हम लोगों को जान पड़ता था कि किसी दूसरे संसार में खड़े हैं। वास्तईव में खँडहर के एक भयानक भाग में इस समय हम लोग खड़े थे। सामने एक बड़ी ईंटों की दीवार देख पड़ी जो औरों की अपेक्षा अच्छीस दशा में थी। इसमें एक खुला हुआ द्वार था। इसी द्वार से हम दोनों ने इसमें प्रवेश किया। भीतर एक विस्तृछत आँगन था जिसमें बेर और बबूल के पेड़ स्वाच्छोन्दंतापूर्वक खड़े उस स्थावन को मनुष्य्-जाति-संबंध से मुक्त सूचित करते थे। इसमें पैर धरते ही मेरे मित्र की दशा कुछ और हो गई और वे चट बोल उठे, "मित्र ! मुझे ऐसा जान पड़ता है कि जैसे मैंने इस स्थांन को और कभी देखा हो, यही नहीं कह सकता, कब। प्रत्येेक वस्तुा यहाँ की पूर्व परिचित-सी जान पड़ती है।" मैं अपने मित्र की ओर ताकने लगा। उन्होंाने आगे कुछ न कहा। मेरा चित्त इस स्था न के अनुसंधान करने को मुझे बाध्यत करने लगा। इधर-उधर देखा तो एक ओर मिट्टी पड़ते-पड़ते दीवार की ऊँचाई के अर्धभाग तक वह पहुँच गई थी। इस पर से होकर हम दोनों दीवार पर चढ़ गए। दीवार के नीचे दूसरे किनारे में चतुर्दिक वेष्टित एक कोठरी दिखाई दी; मैं इसमें उतरने का यत्नत करने लगा। बड़ी सावधानी से एक उभड़ी हुई ईंट पर पैर रखकर हम दोनों नीचे उतर गये। यह कोठरी ऊपर से बिलकुल खुली थी, इसलिए चंद्रमा का प्रकाश इसमें बेरोक-टोक आ रहा था। कोठरी के दाहिनी ओर एक द्वार दिखाई दिया, जिसमें एक जीर्ण किवाड़ लगा हुआ था, हम लोगों ने निकट जाकर किवाड़ को पीछे की ओर धीरे से धकेला तो जान पड़ा कि वे भीतर से बंद हैं।
मेरे तो पैर काँपने लगे। पुन: साहस को धारण कर हम लोगों ने किवाड़ के छोटे-छोटे रन्ध्रों से झाँका तो एक प्रशस्ता कोठरी देख पड़ी। एक कोने में मंद-मंद एक प्रदीप जल रहा था जिसका प्रकाश द्वार तक न पहुँचता था। यदि प्रदीप उसमें न होता तो अंधकार के अतिरिक्तो हम लोग और कुछ न देख पाते।
हम लोग कुछ काल तक स्थिर दृष्टि से उसी ओर देखते रहे। इतने में एक स्त्रीह की आकृति देख पड़ी जो हाथ में कई छोटे पात्र लिए उस कोठरी के प्रकाशित भाग में आयी। अब तो किसी प्रकार का संदेह न रहा। एक बेर इच्छाा हुई कि किवाड़ खटखटाएँ, किंतु कई बातों का विचार करके हम लोग ठहर गये। जिस प्रकार से हम लोग कोठरी में आए थे, धीरे-धीरे उसी प्रकार नि:शब्दल दीवार से होकर फिर आँगन में आए। मेरे मित्र ने कहा, "इसका शोध अवश्ये लगाओ कि यह स्त्री कौन है?" अंत में हम दोनों आड़ में, इस आशा से कि कदाचित् वह फिर बाहर निकले, बैठे रहे। पौन घण्टेी के लगभग हम लोग इसी प्रकार बैठे रहे। इतने में वही श्वेितवसनधारिणी स्त्रीे आँगन में सहसा आकर खड़ी हो गई, हम लोगों को यह देखने का समय न मिला कि वह किस ओर से आयी।
उसका अपूर्व सौंदर्य देखकर हम लोग स्तखम्भित व चकित रह गए। चंद्रिका में उसके सर्वांग की सुदंरता स्प ष्टर जान पड़ती थी। गौर वर्ण, शरीर किंचित क्षीण और आभूषणों से सर्वथा रहित; मुख उसका, यद्यपि उस पर उदासीनता और शोक का स्था यी निवास लक्षित होता था, एक अलौकिक प्रशांत कांति से देदीप्यसमान हो रहा था। सौम्यसता उसके अंग-अंग से प्रदर्शित होती थी। वह साक्षात देवी जान पड़ती थी।
कुछ काल तक किंकर्त्तव्ययविमूढ़ होकर स्तसब्धय लोचनों से उसी ओर हम लोग देखते रहे; अंत में हमने अपने को सँभाला और इसी अवसर को अपने कार्योपयुक्त््‍ विचारा। हम लोग अपने स्थारन पर से उठे और तुरंत उस देवीरूपिणी के सम्मुरख हुए। वह देखते ही वेग से पीछे हटी। मेरे मित्र ने गिड़गिड़ा के कहा, "देवि ! ढिठाई क्षमा करो। मेरे भ्रमों का निवारण करो।" वह स्त्री क्षण भर तक चुप रही, फिर स्निग्धत और गंभीर स्वुर से बोली, "तुम कौन हो और क्योंम मुझे व्य‍र्थ कष्टर देते हो?" इसका उत्तर ही क्याग था? मेरे मित्र ने फिर विनीत भाव से कहा, "देवि! मुझे बड़ा कौतूहल है – दया करके यहाँ का सब रहस्य् कहो।
इस पर उसने उदास स्वरर से कहा, "तुम हमारा परिचय लेके क्याि करोगे? इतना जान लो कि मेरे समान अभागिनी इस समय इस पृथ्वीर मण्डिल में कोई नहीं है।"
मेरे मित्र से न रहा गया; हाथ जोड़कर उन्होंलने फिर निवेदन किया, "देवि ! अपने वृत्तान्ते से मुझे परिचित करो। इसी हेतु हम लोगों ने इतना साहस किया है। मैं भी तुम्हाेरे ही समान दुखिया हूँ। मेरा इस संसार में कोई नहीं है।" मैं अपने मित्र का यह भाव देखकर चकित रह गया।
स्त्रीा ने करुण-स्वनर से कहा, "तुम मेरे नेत्रों के सम्मुमख भूला-भुलाया मेरा दु:ख फिर उपस्थित करने का आग्रह कर रहे हो। अच्छाु बैठो।"
मेरे मित्र निकट के एक पत्थार पर बैठ गये। मैं भी उन्हीं के पास जा बैठा। कुछ काल तक सब लोग चुप रहे, अंत में वह स्त्री बोली -
"इसके प्रथम कि मैं अपने वृत्तान्त‍ से तुम्हें परिचित करूँ, तुम्हें शपथपूर्वक यह प्रतिज्ञा करनी होगी कि तुम्हापरे सिवा यह रहस्य् संसार में और किसी के कानों तक न पहुँचे। नहीं तो इस स्थापन पर रहना दुष्क्र हो जाएगा और आत्मतहत्यां ही मेरे लिए एकमात्र उपाय शेष रह जाएगा।"
हमलोगों के नेत्र गीले हो आये। मेरे मित्र ने कहा, "देवि ! मुझसे तुम किसी प्रकार का भय न करो; ईश्वगर मेरा साक्षी है।"
स्त्रीं ने तब इस प्रकार कहना आरम्भा किया –
"यह खँडहर जो तुम देखते हो, आज से 11 वर्ष पूर्व एक सुंदर ग्राम था। अधिकांश ब्राह्मण-क्षत्रियों की इसमें बस्तीर थी। यह घर जिसमें हम लोग बैठे हैं चंद्रशेखर मिश्र नामी एक प्रतिष्ठित और कुलीन ब्राह्मण का निवास-स्था न था। घर में उनकी स्त्रीी और एक पुत्र था, इस पुत्र के सिवा उन्हेंक और कोई संतान न थी। आज ग्याथरह वर्ष हुए कि मेरा विवाह इसी चंद्रशेखर मिश्र के पुत्र के साथ हुआ था।"
इतना सुनते ही मेरे मित्र सहसा चौंक पड़े, "हे परमेश्वेर! यह सब स्वाप्न है या प्रत्यनक्ष?" ये शब्दं उनके मुख से निकले ही थे कि उनकी दशा विचित्र हो गयी। उन्होंेने अपने को बहुत सँभाला – और फिर सँभलकर बैठे, वह स्त्री उनका यह भाव देखकर विस्मित हुई और उसने पूछा, "क्योंर, क्या‍ है?"
मेरे मित्र ने विनीत भाव से उत्तर दिया, "कुछ नहीं, यों ही मुझे एक बात का स्मारण आया। कृपा करके आगे कहो।"
स्त्रीग ने फिर कहना आरम्भि किया - "मेरे पिता का घर काशी में ... मुहल्ले। में था। विवाह के एक वर्ष पश्चाहत् ही इस ग्राम में एक भयानक दुर्घटना उपस्थित हुई, यहीं से मेरे दुर्दमनीय दु:ख का जन्म। हुआ। संध्याो को सब ग्रामीण अपने-अपने कार्य से निश्चिन्त होकर अपने-अपने घरों को लौटे। बालकों का कोलाहल बंद हुआ। निद्रादेवी ने ग्रामीणों के चिंता-शून्य् हृदयों में अपना डेरा जमाया। आधी रात से अधिक बीत चुकी थी; कुत्ते भी थोड़ी देर तक भूँककर अंत में चुप हो रहे थे। प्रकृति निस्तीब्ध हुई; सहसा ग्राम में कोलाहल मचा और धमाके के कई शब्द हुए। लोग आँखें मींचते उठे। चारपाई के नीचे पैर देते हैं तो घुटने भर पानी में खड़े!! कोलाहल सुनकर बच्चेी भी जागे। एक-दूसरे का नाम ले-लेकर लोग चिल्लाोने लगे। अपने-अपने घरों में से लोग बाहर निकलकर खड़े हुए। भगवती जाह्नवी को द्वार पर बहते हुए पाया!! भयानक विपत्ति! कोई उपाय नहीं। जल का वेग क्रमश: अधिक बढ़ने लगा। पैर कठिनता से ठहरते थे। फिर दृष्टि उठाकर देखा, जल ही जल दिखाई दिया। एक-एक करके सब सामग्रियाँ बहने लगीं। संयोगवश एक नाव कुछ दूर पर आती देख पड़ी। आशा! आशा!! आशा !!!
"नौका आयी, लोग टूट पड़े और बलपूर्वक चढ़ने का यत्नड करने लगे। मल्लाशहों ने भारी विपत्ति सम्मुौख देखी। नाव पर अधिक बोझ होने के भय से उन्होंयने तुरंत अपनी नाव बढ़ा दी। बहुत-से लोग रह गए। नौका पवनगति से गमन करने लगी। नौका दूसरे किनारे पर लगी। लोग उतरे। चंद्रशेखर मिश्र भी नाव पर से उतरे और अपने पुत्र का नाम लेके पुकारा। कोई उत्तर न मिला। उन्होंशने अपने साथ ही उसे नाव पर चढ़ाया था, किंतु भीड़-भाड़ नाव पर अधिक होने के कारण वह उनसे पृथक हो गया था; मिश्रजी बहुत घबराए और तुरंत नाव लेकर लौटे। देखा, बहुत-से लोग रह गए थे; उनसे पूछ-ताछ किया। किसी ने कुछ पता न दिया। निराशा भयंकर रूप धारण करके उनके सामने उपस्थित हुई।"
"संध्याक का समय था; मेरे पिता दरवाजे पर बैठे थे। सहसा मिश्र जी घबराए हुए आते देख पड़े। उन्होंधने आकर आद्योपरान्त पूर्वोल्लिखित घटना कह सुनाई, और तुरंत उन्मरत्त की भाँति वहाँ से चल दिए। लोग पुकारते ही रह गए। वे एक क्षण भी वहाँ न ठहरे। तब से फिर कभी वे दिखाई न दिए। ईश्व र जाने वे कहाँ गये! मेरे पिता भी दत्तचित होकर अनुसंधान करने लगे। उन्होंतने सुना कि ग्राम के बहुत-से लोग नाव पर चढ़-चढ़कर इधर-उधर भाग गए हैं। इसलिए उन्हें आशा थी। इस प्रकार ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कई मास व्य्तीत हो गए। अब तक वे समाचार की प्रतीक्षा में थे और उन्हेंी आशा थी; किंतु अब उन्हेंज चिता हुई। चंद्रशेखर मिश्र का भी तब से कहीं कुछ समाचार मिला। जहाँ-जहाँ मिश्र जी का संबंध था, मेरे पिता स्वखयं गए; किंतु चारों ओर से निराश लौटे; किसी का कुछ अनुसंधान न लगा। एक वर्ष बीता, दो वर्ष बीते, तीसरा वर्ष आरम्भक हुआ। पिता बहुत इधर-उधर दौड़े, अंत में ईश्वएर और भाग्यव के ऊपर छोड़कर बैठ रहे। तीसरा वर्ष भी व्यआतीत हो गया।
"मेरी अवस्थात उस समय 14 वर्ष की हो चुकी थी; अब तक तो मैं निर्बोध बालिका थी। अब क्रमश: मुझे अपनी वास्ततविक दशा का ज्ञान होने लगा। मेरा समय भी अहर्निश इसी चिंता में अब व्य तीत होने लगा। शरीर दिन-पर-दिन क्षीण होने लगा। मेरे देवतुल्यस पिता ने यह बात जानी। वे सदा मेरे दु:ख भुलाने का यत्नप करते रहते थे। अपने पास बैठाकर रामायण आदि की कथा सुनाया करते थे। पिता अब वृद्ध होने लगे; दिवारात्रि की चिंता ने उन्हेंक और भी वृद्ध बना दिया। घर के समस्त कार्य-संपादन का भार मेरे बड़े भाई के ऊपर पड़ा। उनकी स्त्री का स्वाभाव बड़ा क्रूर था। कुछ दिन तक तो किसी प्रकार चला। अंत में वह मुझसे डाह करने लगी और कष्टा देना प्रारम्भ किया, मैं चुपचाप सब सहन करती थी। धीरे-धीरे आश्वाडस-वाक्ये के स्था्न पर वह तीक्ष्ण वचनों से मेरा चित्त्‍ अधिक दु:खाने लगी। यदि कभी मैं अपने भाई से निवेदन करती तो वे भी कुछ न बोलते; आनाकानी कर जाते और मेरे पिता की, वृद्धावस्थाे के कारण, कुछ नहीं चल सकती थी। मेरे दु:ख को समझने वाला वहाँ कोई नहीं देख पड़ता था। मेरी माता का पहिले ही परलोकवास हो चुका था। मुझे अपनी दशा पर बड़ा दु:ख हुआ। हा! मेरा स्वाेमी यदि इस समय होता तो क्या मेरी यही दशा होती? पिता के घर क्या इन्हींु वचनों द्वारा मेरा सत्काार किया जाता। यही सब विचार करके मेरा हृदय फटने लगता था। अब क्रमश: मेरा हृदय मेघाच्छ न्नक होने लगा। मुझे संसार शून्या दिखाई देने लगा। एकांत में बैठकर मैं अपनी अवस्थाी पर अश्रुवर्षण करती। उसमें भी यह भय लगा रहता कि कहीं भौजाई न पहुँच जाए। एक दिन उसने मुझे इसी अवस्थाव में पाया तो तुरंत व्यं ग्यं-वचनों द्वारा आश्वागसन देने लगी। मेरा शोकार्त्त हृदय अग्निशिखा की भाँति प्रज्वालित हो उठा; किंतु मौनावलम्बोन के सिवा अन्य उपाय ही क्यार था? दिन-दिन मुझे यह दु:ख असह्य होने लगा। एक रात्रि को मैं उठी। किसी से कुछ न कहा और सूर्योदय के प्रथम ही अपने पिता का गृह मैंने परित्याोग किया।
"मैं अब यह नहीं कह सकती कि उस समय मेरा क्या विचार था। मुझे एक बेर अपने पति के स्थाोन को देखने की लालसा हुई। दु:ख और शोक से मेरी दशा उन्मचत्त की-सी हो गई थी। संसार में मैंने दृष्टि उठा के देखा तो मुझे और कुछ न दिखलाई दिया। केवल चारों ओर दु:ख! सैकड़ों कठिनाइयाँ झेलकर अंत में मैं इस स्थाेन तक आ पहुँची। उस समय मेरी अवस्थात केवल 16 वर्ष की थी। मैंने इस स्थांन को उस समय भी प्राय: इसी दशा में पाया था। यहाँ आने पर मुझे कई चिह्न ऐसे मिले, जिनसे मुझे यह निश्चउय हो गया कि चंद्रशेखर मिश्र का घर यही है। इस स्थापन को देखकर मेरे आर्त्त हृदय पर बड़ा कठोर आधात पहुँचा।"
इतना कहते-कहते हृदय के आवेग ने शब्दोंद को उसके हृदय ही में बंदी कर रखा; बाहर प्रकट होने न दिया। क्षणिक पर्यंत वह चुप रही; सिर नीचा किए भूमि की ओर देखती रही। इधर मेरे मित्र की दशा कुछ और ही हो रही थी; लिखित चित्र की भाँति बैठे वे एकटक ताक रहे थे; इंद्रियाँ अपना कार्य उस समय भूल गयी थीं। स्रीह च ने फिर कहना आरम्भे किया –
"इस स्था न को देख मेरा चित्त बहुत दग्धह हुआ। हा! यदि ईश्वेर चाहता तो किसी दिन मैं इसी गृह की स्वासमिनी होती। आज ईश्वचर ने मुझको उसे इस अवस्था में दिखलाया। उसके आगे किसका वश है? अनुसंधान करने पर मुझे दो कोठरियाँ मिलीं जो सर्वप्रकार से रक्षित और मनुष्य की दृष्टि से दुर्भेद्य थीं। लगभग चारों ओर मिट्टी पड़ जाने के कारण किसी को उनकी स्थिति का संदेह नहीं हो सकता था। मुझे बहुत-सी सामग्रियाँ भी इनमें प्राप्तक हुईं जो मेरी तुच्छी आवश्यसकता के अनुसार बहुत थीं। मुझे यह निर्जन स्था-न अपने पिता के कष्टाउगार से प्रियतम प्रतीत हुआ। यहीं मेरे पति के बाल्याुवस्था के दिन व्यपतीत हुए थे। यही स्था न मुझे प्रिय है। यहीं मैं अपने दु:खमय जीवन का शेष भाग उसी करुणालय जगदीश्वार की, जिसने मुझे इस अवस्था‍ में डाला, आराधना में बिताऊँगी। यही विचार मैंने स्थिर किया। ईश्व र को मैंने धन्यझवाद दिया, जिसने ऐसा उपयुक्तर स्थाान मेरे लिए ढूँढ़कर निकाला। कदाचित् तुम पूछोगे कि इस अभागिनी ने अपने लिए इस प्रकार का जीवन क्यों उपयुक्तस विचारा? तो उसका उत्तर है कि यह दुष्ट संसार भाँति-भाँति की वासनाओं से पूर्ण है, जो मनुष्यू को उसके सत्यद-पथ से विचलित कर देती हैं। दुष्ट और कुमार्गी लोगों के अत्या चार से बचा रहना भी कठिन कार्य है।"
इतना कहके वह स्त्री ठहर गयी। मेरे मित्र की ओर उसने देखा। वे कुछ मिनट तक काष्ठ पुत्तलिका की भाँति बैठे रहे। अंत में एक लंबी ठंडी साँस भर के उन्होंवने कहा, "ईश्व्र ! यह स्वषप्नय है या प्रत्यतक्ष?" स्त्री उनका यह भाव देख-देखकर विस्मित हो रही थी। उसने पूछा, "क्योंह ! कैसा चित्त है?" मेरे मित्र ने अपने को सँभाला और उत्तर दिया, "तुम्हा्री कथा का प्रभाव मेरे चित्त पर बहुत हुआ है; कृपा करके आगे कहो।"
स्त्रीर ने कहा, "मुझे अब कुछ कहना शेष नहीं है। आज पाँच वर्ष मुझे इस स्था न पर आए हुए; संसार में किसी मनुष्यी को आज तक यह प्रकट नहीं हुआ। यहाँ प्रेतों के भय से कोई पदार्पण नहीं करता; इससे मुझे अपने को गोपन रखने में विशेष कठिनता नहीं पड़ती। संयोगवश रात्रि में किसी की दृष्टि यदि मुझ पर पड़ी भी तो चुड़ैल के भ्रम से मेरे निकट तक आने का किसी को साहस न हुआ। यह आज प्रथम ऐसा संयोग उपस्थित हुआ है; तुम्हातरे साहस को मैं सराहती हूँ और प्रार्थना करती हूँ कि तुम अपने शपथ पर दृढ़ रहोगे। संसार में अब मैं प्रकट होना नहीं चाहती; प्रकट होने से मेरी बड़ी दुर्दशा होगी। मैं यहीं अपने पति के स्थाबन पर अपना जीवन शेष करना चाहती हूँ। इस संसार में अब मैं बहुत दिन न रहूँगी।"
मैंने देखा, मेरे मित्र का चित्त भीतर-ही-भीतर आकुल और संतप्ता हो रहा था; हृदय का वेग रोककर उन्होंदने प्रश्नम किया, "क्योंश ! तुम्हेंे अपने पति का कुछ स्मोरण है?"
स्त्रीद के नेत्रों से अनर्गल वारिधारा प्रवाहित हुई। बड़ी कठिनतापूर्वक उसने उत्तर दिया, "मैं उस समय बालिका थी। विवाह के समय मैंने उन्हें देखा था। वह मूर्ति यद्यपि मेरे हृदय–मंदिर में विद्यमान है; प्रचण्डथ काल भी उसको वहाँ से हटाने में असमर्थ है।"
मेरे मित्र ने कहा, "देवि ! तुमने बहुत कुछ रहस्य" प्रकट किया; जो कुछ शेष है उसका वर्णन कर अब मैं इस कथा की पूर्ति करता हूँ।"
स्त्री विस्मरयोत्फुसल्लु लोचनों से मेरे मित्र की ओर निहारने लगी। मैं भी आश्चषर्य से उन्हीं की ओर देखने लगा। उन्होंवने कहना आरम्भफ किया –
"इस आख्यानयिका में यही ज्ञात होना शेष है कि चंद्रशेखर मिश्र के पुत्र की क्या दशा हुई। चंद्रशेखर मिश्र और उनकी पत्नीस क्याय हुए। सुनो, नाव पर मिश्र जी ने अपने पुत्र को अपने साथ ही बैठाया। नाव पर भीड़ अधिक हो जाने के कारण वह उनसे पृथक् हो गया। उन्होंाने समझा कि वह नाव ही पर है; कोई चिंता नहीं। इधर मनुष्यों की धक्कां-मुक्कीत से वह लड़का नाव पर से नीचे जा रहा। ठीक उसी समय मल्ला ह ने नाव खोल दी। उसने कई बेर अपने पिता को पुकारा; किंतु लोगों के कोलाहल में उन्हें् कुछ सुनाई न दिया। नाव चली गयी। बालक वहीं खड़ा रह गया और लोग किसी प्रकार अपना-अपना प्राण लेके इधर-उधर भागे। नीचे भयानक जलप्रवाह; ऊपर अनन्तग आकाश। लड़के ने एक छप्प्र को बहते हुए अपनी ओर आते देखा; तुरंत वह उसी पर बैठ गया। इतने में जल का एक बहुत ऊँचा प्रबल झोंका आया। छप्पतर लड़के सहित शीघ्र गति से बहने लगा। वह चुपचाप मूर्तिवत् उसी पर बैठा रहा। उसे यह ध्या न नहीं कि इस प्रकार कै दिन तक वह बहता गया। वह भय और दुविधा से संज्ञाहीन हो गया था। संयोगवश एक व्याइपारी की नाव, जिस पर रूई लदी थी, पूरब की ओर जा रही थी। नौका का स्वा मी भी बजरे ही पर था। उसकी दृष्टि उस लड़के पर पड़ी। वह उसे नाव पर ले गया। लड़के की अवस्था‍ उस समय मृतप्राय थी। अनेक यत्नस के उपरांत वह होश में लाया गया। उस सज्ज न ने लड़के की नाव पर बड़ी सेवा की। नौका बराबर चलती रही; बीच में कहीं न रुकी; कई दिनों के उपरांत कलकत्ते पहुँची।
"वह बंगाली सज्जपन उस लड़के को अपने घर पर ले गया और उसे उसने अपने परिवार में सम्मिलित किया। बालक ने अपने माता-पिता के देखने की इच्छाे प्रकट की। उसने उसे बहुत समझाया और शीघ्र अनुसंधान करने का वचन दिया। लड़का चुप हो रहा।
"इसी प्रकार कई मास व्यनतीत हो गए। क्रमश: वह अपने पास के लोगों में हिल-मिल गया। बंगाली महाशय के एक पुत्र था। दोनों में भ्रातृ–स्ने:ह स्थापपित हो गया। वह सज्जशन उस लड़के के भावी हित की चेष्टाए में तत्प र हुआ। ईस्टस इंडिया कंपनी के स्थापपित किए हुए एक अँग्रेजी स्कूेल में अपने पुत्र के साथ-साथ उसे भी वह शिक्षा देने लगा। क्रमश: उसे अपने घर का ध्यािन कम होने लगा। वह दत्तचित्त होकर शिक्षा में अपना सारा समय देने लगा। इसी बीच कई वर्ष व्यीतीत हो गए। उसके चित्त में अब अन्यक प्रकार के विचारों ने निवास किया। अब पूर्व परिचित लोगों के ध्याउन के लिए उसके मन में कम स्थाषन शेष रहा। मनुष्यन का स्वरभाव ही इस प्रकार का है। नौ वर्ष का समय निकल गया।
"इसी बीच में एक बड़ी चित्ताकर्षक घटना उपस्थित हुई। बंगदेशी सज्जवन के उस पुत्र का विवाह हुआ। चंद्रशेखर का पुत्र भी उस समय वहाँ उपस्थित था। उसने सब देखा; दीर्घकाल की निद्रा भंग हुई। सहसा उसे ध्यापन हो आया, ‘मेरा भी विवाह हुआ है; अवश्यि हुआ है।’ उसे अपने विवाह का बारम्बासर ध्या‍न आने लगा। अपनी पाणिग्रहीता भार्या का भी उसे स्मररण हुआ। स्वयदेश में लौटने को उसका चित्त आकुल होने लगा। रात्रि-दिन इसी चिंता में व्य्तीत होने लगे।
हमारे कतिपय पाठक हम पर दोषारोपण करेंगे कि ‘हैं! न कभी साक्षात् हुआ, न वार्तालाप हुआ, न लंबी-लंबी कोर्टशिप हुई; यह प्रेम कैसा?’ महाशय, रुष्टआ न हूजिये। इस अदृष्टु प्रेम का धर्म और कर्तव्यम से घनिष्ठप संबंध है। इसकी उत्पेत्ति केवल सदाशय और नि:स्वारर्थ हृदय में ही हो सकती है। इसकी जड़ संसार के और प्रकार के प्रचलित प्रेमों से दृढ़तर और अधिक प्रशस्ता है। आपको संतुष्ट करने को मैं इतना और कहे देता हूँ कि इंग्लैं्ड के भूतपूर्व प्रधानमंत्री लार्ड बेकन्सषफील्ड का भी यही मत था।
"युवक का चित्त अधिक डाँवाडोल होने लगा। एक दिन उसने उस देवतुल्‍य सज्जकन पुरुष से अपने चित्त की अवस्था् प्रकट की और बहुत विनय के साथ विदा माँगी। आज्ञा पाकर उसने स्व्देश की ओर यात्रा की, देश में आने पर उसे विदित हुआ कि ग्राम में अब कोई नहीं है। उसने लोगों से अपने पिता-माता के विषय में पूछताछ किया। कुछ थोड़े दिन हुए वे दोनों इस नगर में थे; और अब वे तीर्थ-स्था नों में देशाटन कर रहे हैं। वह अपनी धर्मपत्नीं के दर्शनों की अभिलाषा से सीधे काशी गया। वहाँ तुम्हाीरे पिता के घर का वह अनुसंधान करने लगा। बहुत दिनों के पश्चानत् तुम्हािरे ज्येकष्ठी भ्राता से उसका साक्षात् हुआ, जिससे तुम्हाारे संसार से सहसा लोप हो जाने की बात ज्ञात हुई। वह निराश होकर संसार में घूमने लगा।"
इतना कहकर मेरे मित्र चुप हो रहे। इधर शेष भाग सुनने को हम लोगों का चित्त ऊब रहा था; आश्च र्य से उन्हींो की ओर हम ताक रहे थे। उन्होंकने फिर उस स्त्रीा की ओर देखकर कहा, "कदाचित् तुम पूछोगी, कि इस समय अब वह कहाँ है? यह वही अभागा मनुष्यस तुम्हा रे सम्मुगख बैठा है।"
हम दोनों के शरीर में बिजुली-सी दौड़ गयी; वह स्त्री भूमि पर गिरने लगी; मेरे मित्र ने दौड़कर उसको सँभाला। वह किसी प्रकार उन्हीं के सहारे बैठी। कुछ क्षण के उपरांत उसने बहुत धीमे स्व र से मेरे मित्र से कहा, "अपना हाथ दिखाओ।"
उन्होंसने चट अपना हाथ फैला दिया, जिस पर एक काला तिल दिखाई दिया। स्त्री कुछ काल तक उसी की ओर देखती रही; फिर मुख ढाँपकर सिर नीचा करके बैठी रही। लज्जाि का प्रवेश हुआ। क्योंलकि यह एक हिंदू-रमणी का उसके पति के साथ प्रथम संयोग था।
आज इतने दिनों के उपरांत मेरे मित्र का गुप्त रहस्य प्रकाशित हुआ। उस रात्रि को मैं अपने मित्र का खँडहर में अतिथि रहा। सवेरा होते ही हम सब लोग प्रसन्नतचित्त नगर में आए।
(1903)